SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र शोक में हर्ष शोक में हर्ष इस काष्ठ को चारों तरफ से इस प्रकार मजबूत जकड़कर बांधने का क्या कारण होगा? क्या यह अंदर से थोता तो नहीं होगा? इसे गोला नदी में किसने बहा दिया होगा? क्या इतना बड़ा काष्ठस्तंभ अपने आप ही बह आया होगा? इत्यादि अनेक प्रकार के मनोगत तर्क वितर्क करते हुए राजा वीरधवल ने अपने सेवकों को उसके बंधन तोड़ डालने का हुक्म दिया । बंधन तोड़ते ही उस काष्ठ के सीप संपुट के समान दो भाग मालूम हुए । ऊपरी भाग दूर करने पर उसके बीच में रही हुई अर्द्धजागृत अवस्था में रानी चंपकमाला सब लोगों को अकस्मात् प्रत्यक्ष देखने में आयी । उसके शरीर पर चंदन विलेपन का परिमल महक रहा था । उसके कंठ में सच्चे मोतियों का अमूल्य और सुंदर हार शोभ रहा था और नेत्रों में निद्रा छायी हुई थी। ___अकस्मात् उस काष्ठ विवर के अंदर निद्रालु अवस्था में महारानी चंपकमाला को देख महाराज वीरधवल और तमाम प्रधान पुरुषों के मुख से एकदम हर्षध्वनि हो उठी । अहा! रानी चंपकमाला यहां! क्या देख रहे हैं? सबके चेहेरे विकसित हो उठे । और वहाँ पर रहे हुए तमाम स्त्री-पुरुषों में जो शोक की प्रचंड घटा छायी हुई थी, वह नष्ट होकर हर्ष और आनंद का प्रचंड भानु प्रकाशित हो उठा । इस हर्ष के साथ ही महाराज वीरधल विचार में पड़े कि जिस रानी के मृतक को शिविका में डालकर यहां लाये हैं, वह असली रानी है या यह? या मैं यह स्वप्न देख रहा हूं' अथवा वही जीवित रानी डर के कारण इस काष्ठ विवर में आ घुसी है? परंतु यह तमाम बातें असंभव सी प्रतीत होती हैं । इसमें वास्तविक सत्य क्या है यह जानने के लिए महाराज वीरधवल ने तुरंत ही अपने सेवकों को आज्ञा दी कि जल्दी शिबिका को देखो उसमें रानी का मृतक है या नहीं? राजा का हुक्म पाते ही राजपुरुष शिविका देखने के लिए दौड़े । इतने ही में शिबिका में रहा हुआ शव हाथ से हाथ मसलता हुआ, दांतों से दांत पीसता हुआ, 'अरे! मैं ठगा गया' इस प्रकार शब्द बोलता हुआ तमाम जनता के प्रत्यक्ष देखते हुए आकाश में उड़ गया ।
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy