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________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र बन्धन मुक्ति द्वारा मंत्रित करने से आज मैं आप लोगों का दास बन चुका हूं । इसलिए आप मुझे आज्ञा करें कि मैं आपकी क्या सेवा करूं । राक्षस को स्वाधीन हुआ देख विजयचंद्र ने कहा - हे राक्षसेन्द्र ! अबसे तूं इस नगरी के प्रति वैरभाव को छोड़ और नगर की पूर्ववत् शोभा कर तथा भंडारों को धन धान्य से परिपूर्ण कर । विजयचंद्र के कथनानुसार राक्षस ने - तमाम बातें मंजूर कर लीं और अपनी दिव्य शक्ति से उसने थोड़े ही समय में नगर की पूर्ववत् शोभा बढ़ा दी । विजयचंद्र ने तित्तर वित्तर होकर अपनी भागी हुई प्रजा को जहां तहां से पीछे बुला लिया पहले के ही मंत्री को उसने प्रधान पद समर्पित किया। प्रधान आदि राज पुरुषों और प्रजा समुदाय ने मिलकर विजयचंद्र को राज्यासन पर विराजमान किया । विजयचंद्र भी संतान की भांति प्रजा पालन करने लगा । उसने अपने प्रचंड प्रताप से और नीति निपुणता से पहले से भी अधिक अपनी राजधानी की शोभा बढ़ा दी । गुणवर्मा को अर्धासन पर बैठाकर कृतज्ञ राजा विजयचंद्र ने नम्रता से कहा - "गुणवर्मा! यह तमाम राज्य ऋद्धि तेरी सहायता से प्राप्त की है इसलिए इस राज्य में से इच्छानुसार ग्रहणकर मुझ पर किये हुए उपकार से मुझे अनुग्रहित करो । समय देख बड़ी नम्रता के साथ गुणवर्मा ने कहा "महाराज विजयचंद्र? मुझे राज्य या राज्य की किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, परंतु यदि आप इस उपकार का बदला देना ही चाहते हैं तो चंद्रावती नगरी में जो आप लोभाकर और लोभानंदी को स्तंभितकर आये हैं वे मेरे पूज्य पिता और चाचा है, उनका अपराध क्षमाकर उन्हें बंधन मुक्त कीजिए । " - यह बात सुनते ही विजयचंद्र आश्चर्यचकित हो गया अहा ! विष वृक्ष से अमृत फल की उत्पत्ति ! गुणवर्मा ! क्या आप सच कहते हैं? क्या सचमुच ही वे आपके पिता और चाचा थे? ओहो ! उनका ऐसा आचरण और आपका यह परोपकारी स्वभाव! अहा ! परमात्मा ने कैसी विचित्र सृष्टि की रचना की है ! " गुणवर्मा ने गर्दन झुकाकर जवाब दिया हाँ, महाराज! वे मेरे पिताश्री और चाचा साहब है। महाराज ! कर्मों की विचित्र गति है । आप कृपाकर उन्हें शीघ्र 23
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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