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________________ . द्वितीयो लम्बः । ननन्द नन्दगोपोऽपि गोधनस्योपलम्भतः। असुमतामसुभ्योऽपि गरीयो हि भृशं धनन् ॥७२॥ अन्वयार्थः ---(नन्दगोपः अपि) नन्दगोप भी ( गोधनस्य उपलम्भतः ) गौरूपी धनके मिलनानेसे (ननन्द) अत्यन्त हर्षित होता भया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( असुमतां ) प्राणियोंके (धन) धन (असुभ्यः अपि, प्राणोंसे भी (गरीयः) प्यारा होता है।।७१॥ अथानीय सुतां दातुं स्वामिने वार्यपातयत् । कृत्याकृत्यविमूढा हि गाढस्नेहान्धजन्तवः ॥७३॥ ___ अन्वयार्थः-(अथ) तदनन्तर वह नन्दगोप (सुतां आनीय) पुत्रीको लाकर (स्वामिने दातुं) जीवंधर स्वामीके देनेके लिये (वारि) जल धाराको (अपातयत् ) डालताभया। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गाढस्नेहान्धनन्तवः) अत्यंत स्नेहसे अन्धे पुरुष (कृत्याकृत्यविमूढाः) कृत्याकृत्यके विचारमें मूढ (सन्ति) होते हैं ॥ __अर्थात्-नन्दगोपने यह नहीं विचारा कि जीवंधर स्वामी मेरी पुत्रीको लेंगे या नहीं क्योंकि क्षत्री राजाओंके यहां यह नियम होता है कि पहले क्षत्रि कन्याके साथ विवाह कर फिर दूसरेकी कन्या के साथ विवाह करते हैं ॥७३॥ जीवंधरस्तु जग्राह वार्धारां तेन पातिताम् । पद्मास्यो योग्य इत्युक्त्वा न ह्ययोग्ये स्पृहा सताम्॥७४ . अन्वयार्यः-(तु) फिर (जीवंधरः) जीवंधरने (तेन पातितां) उसके द्वारा डाली हुई (वार्धारा) जलकी धाराको (पद्भास्य योग्यः) "पद्धास्य इस कन्याके योग्य है " ( इति उक्त्वा) यह कह कर
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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