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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २४१ वाला है ( भक्ता च ) और तू ही कर्मोका नाश करके मुक्तिको प्राप्त करने वाला है । इसलिये ( हे तात ! ) हे तात ! (स्वाधीनायां मुक्तौ ) अपने स्वाधीन मुक्तिको प्राप्ति में ( किं न चेष्टसे ) वयों प्रयत्न नहीं करता है ॥ ४५ ॥ अज्ञातं कर्मणैवात्मन्स्वाधीनेऽपि सुखोदये । नेहसे तदुपायेषु यतसे दुःखसाधने ॥ ४६ ॥ अन्वयार्थः-( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (कर्मणा एव अज्ञातं) कर्मों के उदयसे तू अज्ञानी होकर ( स्वाधीने ) स्वाधीन (सुखोदये) मोक्ष सुख में अर (तत् उपआयेषु। उसके उपायों में (न ईहसे) चेष्टा नहीं करता है किन्तु (दुःख साधने) दुःखोंके कारणों में तू निरंतर (यतसे) यत्न किया करता है ॥ ५--अथान्यत्वानुप्रेक्षा। . देहात्मकोऽहमित्यात्मञ्जातु चेतसि मा कृथाः । कर्मतो ह्यपृथक्त्वं ते त्वं निचोलातिसंनिभः ॥४७: ____ अन्वयार्थ:--' हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (देहात्मकः अहं) मैं देह रूप हूं (इति) यह बात (त्वं) तू (जातु) कदापि (चेतसि) अपने चित्तमें (मा कृथाः) मतला (हि) निश्चयसे (कर्मतः) कर्मसे (ते) तेरे ( अष्टथकत्वं ) शरीरकी एकता है (त्वं) तू तो (निचोलासिसंनिभः) म्यानके भीतर रहनेवाली तलवारके समान है ॥ ४७ ॥ अध्रुवत्वादमेध्यत्वादचित्त्वाच्चान्यदकम् । चित्त्वनित्यत्वमेध्यत्वैरात्मन्नन्योऽसि कायतः॥४८॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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