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________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १९१ .. अन्वयार्थ - ( बांधवाः) जीवंधर स्वामीके मित्रोंने ( वर चिह्न) वरके चिन्ह से युक्त (तं) उन जीवंधर स्वामीको (आलोक्य) देखकर ( बहु अमन्यत ) अत्यंत आदरसत्कार किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्वयसे ( देहिनाम् ) प्राणियोंको ( ऐहिकातिशयप्रीतिः ) इन लोक संमधी अतिशय अर्थात् किसीकी सांसारिक बढतीमें प्रेम ( अतिमात्राः भवति) अत्यन्त होता है ॥ ३ ॥ अब्रवीदस्य सोत्प्रासं वुद्धिषेणो विदूषकः । बहुद्वारा हि जीवानां पराराधनदीनता ॥ ४ ॥ -- अन्वयार्थः - फिर (बुद्धिषेण ) बुद्धिषेण नामके (अस्य) इन जीवंधर स्वामी ( विदूषकः ) विदूषकने ( सोत्नासम् ) हंसकर ( अब तू ) कहा । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( परार - धनदीनता) दूसरों की सेवा करनेकी चतुराई ( जीवानां) प्राणियों के ( बहुद्वारा) नाना प्रकार की (भवति) होती है ॥ ४ ॥ सुरभः खलु दौर्भाग्यादन्योपेक्षितकन्यकाः । व्यूढायां सुरमञ्जय पौरोभाग्यं भवेदिति ॥ ५ ॥ अन्वयार्थः–“ (दौर्भाग्यात्) दुर्भाग्य के कारण (अन्योपेक्षितकन्यकाः) दूसरों से उपेक्षा की हुई कन्याएं (सुलभाः खलु) तो सिचाहेको मिल सकत हैं, किन्तु (सुरमञ्जर्यं व्यूढायां) सुरमअरीके साथ व्याह करनेपर ही (पौरोभाग्यं) आप महाभाग्यशाली ( भवेत् ) कहलाएंगे । (इति) इस प्रकार विदूषकने जीवंधर स्वामी से कहा ॥ ५ ॥ तद्वाक्यादयमुद्दोदुमवाञ्छीतां च मानिनीम् । हेतुच्छ लोपलम्भेन जृम्भते हि दुराग्रहः ॥ ६॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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