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________________ अष्टमो लम्बः । अन्वयार्थः - ( ततः ) इसके अनंतर ( तत्र ) उस दण्डक अरण्यमें (अवन्ध्यधीः) निष्फल नहीं है किसी कार्य में बुद्धि जिनकी ऐसे जीवंधर कुमार ( प्रसवित्रीं ) अपनी माताको (वीक्ष्य) देख कर ( प्रेमान्धः अभूत् ) मातृप्रेमसे अन्धे हो गये । अत्र नीति: । (हि) निश्चय से (तत्वज्ञान तिरोभावे ) तत्वज्ञान रूपी विचारके छिप जाने पर ( रागादि) रागादिक भाव (निरंकुशम् ) बिना रुकावटके प्रबलतासे (प्रवर्तते ) ही प्रवर्तित हो जाते हैं ॥ १३ ॥ जातजातक्षणत्यागाज्जातं दुर्जातमक्षिणोत् । सुतवीक्षणतो माता सुतप्राणा हि मातरः ॥ ५४ ॥ अन्वयार्थ - (माता) जीवंधर स्वामीकी माताने (जातजातक्षणत्यागात) पुत्र को जन्म समय में ही त्याग देनेसे ( जातं) उत्पन्न (दुर्जातं ) दुःखको (सुतवीक्षणतः) पुत्रके देखनेसे ही (अक्षिणोत ) नष्ट कर दिया अर्थात् भूल गई । अत्र नीति: । (हि) निश्वयसे ( सुतप्राणामातरः सन्ति) पुत्र ही हैं प्राण जिनके ऐसी माताएं होती हैं ॥ १४ ॥ १८२ . सुनोर्वीक्षणतस्तता क्षोणीशं तमियेष सा । लाभं लाभमभीच्छा स्यान्न हि तृप्तिः कदाचन ॥ ५५ ॥ अन्वयार्थः -- ( सूनोः) पुत्रके ( वीक्षणतः ) देख लेनेसे (तप्ता ) तप्तायमान (सा) वह माता (तं) पुत्रको ( क्षोणीशं) राजा होनेकी ( इयेष ) इच्छा करती भई । अर्थात् - यह कब राजा होगा ऐसी उनकी माताने इच्छा की । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (लाभ लाभ अभि) एक वस्तुकी प्राप्ति हो जानेपर मनुष्यकी दूसरी वस्तुकी
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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