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________________ ૧૨૮ षष्ठो लम्बः । धाश्रितान्समालोक्य तापसान्मुमुदे कृती। प्रीतये हि सतां लोके स्वोदयाच परोदयः ॥३०॥ अन्वयार्थः-(कृती) विद्वान् जीवंधर (धर्माश्रितान् तापसान् समालो. क्य) धर्मयुक्त उन तपस्वियोंको देखकर (मुमुदे) अत्यंत आनंदित हुए अत्र नीतिः (हि) निश्चनसे (लोके) इसलोकमें (सतां) सज्जन पुरुषोंको (सोदयात्) अपने उदयकी अपेक्षा (परोदयः) दूसरेका अभ्युदय ही (प्रीतये भवति) प्रीतिके लिये होता है ॥ ३० ॥ बोधिलाभात्परा पुंसां भूतिः का वा जगत्त्रये । किंपाकफलसंकाशैः किं परैरुदयच्छ लैः ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थ:-(जगत्रये) तीनोलोकोंमें (पुंसां) पुरुषोंको (बोधिलाभात्) सम्यग्दर्शन, सम्यगूज्ञान, सम्यग्चारित्रकी प्राप्तिसे (परा) उत्कृष्ट (का वा भूतिः) और कौनसा ऐश्चर्य है । (किंपाक फल संकाशैः उदयच्छलै:) विष वृक्षके फलके समान प्राप्ति कालमें छलने वाले (परैः किं ) धन सम्पत्यादिक इन्द्रिय विषयादिकोंसे क्या फल ।। ३१ ॥ ततस्तस्माद्विनिर्गत्य देशे दक्षिणनामके । सहस्रकूटमाश्रित्य श्रीविमानं नुनाव सः ॥ ३२ ॥ अन्वयार्थः--(ततः) इसके अनंतर (सः) उन जीवंधर स्वामीने (तस्मात् ) उस तापसाश्रमसे (विनिर्गत्य) निकल कर (दक्षिण नामके देशे) दक्षिण नामके देशमें ( सहस्रकूट) सहस्रकूट नामके ( श्री विमानं ) जिनालयको ( आश्रित्य ) प्राप्त होकर (नुनाव) स्तुति प्रारंभ की ॥ ३२॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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