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________________ १०८ पञ्चमो लम्बः । इत्यूहादाधिमापन्ने लोके तेऽपि युयुत्सवः । सखायः सानुजाः सर्वे पश्चात्तापमुपागमन् ॥ २१॥ ____ अन्वयार्थ:-( इति उहात ) इस प्रकारके विचारसे (लोके) प्रजाके सारे लोंगोको (आधिम् आपन्ने) मानसीक पीड़ा प्राप्त होनेपर (युयुत्सवः) युद्धकी इच्छा करनेवाले (सानुनाः) छोटे भाई नंदाढ्य सहित (ते सर्वे सखायः) वह संम्पूर्ण जीवंधरके मित्र (जो उनके साथ पूर्वमें पाले गये थे ) जीवंधरके वहां न रहनेपर (पश्चात्तापं) पश्चातापको (उपागमन्) करने लगे ॥२१॥ स्मरन्तो मुनिवाक्यस्य सप्राणौ पितरौ स्थितौ । वितथे मुनिवाक्येऽपि प्रामाण्यं वचने कुतः ॥२२॥ ___अन्वयार्थः-(मुनिवाक्यस्य) मुनिके वाक्योंका (स्मरन्तौ) स्मरण करते हुए (पितरौ) जीवंधरके माता पिता (सुनन्दा और गन्धोत्कट) (सप्राणौ स्थितौ) प्राणों सहित स्थित रहे । निश्चयसे (मुनिवाक्ये अपि) मुनिके वचन भी यदि (वितथे) झूठे हो। तो फिर (बचने) वचनमें (प्रामाण्य) प्रमाणपना (कुतः) कैसे हो सकता है।२२। स्वामिनो न विषादो वा प्रसादो वा तदाभवत् । किंतु पूर्वकृतं कर्म भोक्तव्यमिति मानसम् ॥ २३ ॥ अन्वयार्थः---(तदा) उस समय (स्वामिनः) नीवंधरस्वामीको (बिषादः वा प्रसादः) खेद अथवा हर्ष (न अभवत) कुछ भी नहीं हुआ "(किन्तु) किन्तु ( पूर्वकृतंकर्म ) पूर्व जन्ममें संचित किया हुआ कर्म (मोक्तव्यं) अवश्य भोगनीय होता है" (इति मानसम्) इस प्रकार उनके मन में विचार उत्पन्न हुआ ॥ २३ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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