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________________ २२ वर्धमानचरितम् गृहीतनेपथ्यविलासविभ्रमं परीतमन्तःपुरमङ्गरक्षकैः । समन्ततो युग्यगतं विनिर्ययौ तदाज्ञया ज्ञाननिधि निरीक्षितुम् ॥६९ [शार्दूलविक्रीडितम्] अर्थैरथिमनोरथान्सफलयनारुह्य मत्तद्विपं तत्कालोचितवेषभूत क्षितिभृतां वातैव॒तः सर्वतः। भूपेन्द्रो मुनिबन्दनाय परयाऽयासद्वीनं सम्पदा हानस्थितचारुपौरवनितानेत्रोत्पलैरचितः ॥७० ॥ इत्यसगकविकृते श्रीवर्धमानकाव्ये वन्दनाभक्तिगमनो नाम द्वितीयः सर्गः ॥ तृतीयः सर्गः - अनुष्टुप् अथ प्राप मुनेस्तस्य निवासात्पावनं वनम् । नन्दनो नन्दनोद्यानसन्निभं शक्रसन्निभः ॥१ परिरेभे तमभ्येत्य दूराद्दरीकृतश्रमः । सुगन्धिर्बन्धुवद्भरिदक्षिणं दक्षिणानिलः ॥२ प्रतीक्षा करने लगे।। ६८ ॥ जिसने वेषभूषा और हावभाव को ग्रहण किया था, जो अङ्गरक्षकों से घिरा हुआ था तथा उचित वाहनों पर अधिरूढ था ऐसा अन्तःपुर राजा की आज्ञा से ज्ञान के भण्डारस्वरूप मुनिराज के दर्शन करने के लिये सब ओर से बाहर निकला ॥ ६९ ॥ जो धन के द्वारा याचकों के मनोरथ को सफल कर रहा था, उस समय के योग्य वेष को धारण कर रहा था, राजाओं के समूह से सब ओर घिरा हुआ था और महलों के अग्रभाग पर स्थित नगरवासियों की सुन्दर स्त्रियों के नयनकमलों से पूजित था ऐसा राजा मत्त हाथी पर सवार हो उत्कृष्ट विभूति के साथ वन की ओर चला ॥ ७० ॥ ।। इस प्रकार असग कवि कृत श्री वर्धमान काव्य में वन्दनाभक्ति के . लिये गमन का वर्णन करनेवाला दूसरा सर्ग समाप्त हुआ। तृतीय सर्ग तदनन्तर इन्द्र के समान नन्दन, नन्दनवन के समान उस वन को प्राप्त हुआ जो कि उन मुनिराज के निवास से पवित्र हो गया था ॥ १॥ श्रम को दूर करनेवाली सुगन्धित मलयसमीर ने अतिशय उदार राजा नन्दन का दूर से सन्मुख आकर भाई के समान आलिङ्गन किया । भावार्थ-राजा नन्दन भूरिदक्षिण-अतिशय उदार था ( पक्ष में अत्यधिक दाक्षिणात्य था ) और मलयसमीर भी दक्षिण से आ रही थी इसलिये दाक्षिणात्यपने की अपेक्षा दोनों में भाईचारा था।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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