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________________ ०५८ वर्धमानचरितम् धुन्वानाविव दृश्यतामुपगतौ ज्योत्स्नातरङ्गौ दिवा ___यक्षौ तं विमल प्रकीर्णकपदेना सेविषात प्रभुम् । यस्मिन्पश्यति रत्नदर्पण इव स्वातीतजन्मावलों ___ भव्यौघस्तदभूत्तदीयवपुषो भामण्डलं मण्डनम् ॥४७ नानापत्रलतान्वितं वनमिव व्याजम्भमाणानवै युक्तं केशरिभिः सरत्नमकरं धामेव वारां परम् । तुङ्गं हेममयं सुरासुरजनैः संसेव्यमानं सदा मेरोः शृङ्गमिवासनं जिनपतेस्तस्याभवद्भासुरम् ॥४८ उपजातिः अजायमानेऽथ पतिः सुराणां दिव्यध्वनौ तस्य जिनेश्वरस्य । आनेतुमात्मावधिदर्शितो यस्तं गौतमग्राममगाङ्गणेशम् ॥४९ वसन्ततिलकम् तत्र स्थितं जगति गौतमगोत्रमुख्यं विप्रं घिया विमलया प्रथितं च कीर्त्या।। इन्द्रस्ततो जिनवरान्तिकमिन्द्रभूति वादच्छलेन वटुवेषभूदाविनाय ॥५० की कान्ति के समान सफ़ेद होकर भी भव्यजीवों के समूह को रागावह-लालिमा को उत्पन्न करने वाला था (परिहार पक्ष में भव्यजीवों के समूह को रागावह-प्रेम उत्पन्न करने वाला था) तथा उनके त्रिलोकीनाथ होने का उत्तम चिह्न था ऐसा उन भगवान् का छत्रत्रय इस प्रकार देदीप्यमान हो रहा था मानों देवलोग क्षीरसागर के जिस जल को चक्राकार करके ऊपर ले गये थे वह अपनी प्रभा को ख्याति के लिये तीन रूप रख कर वहीं आकाश में मानों स्थित हो गया हो ॥ ४६॥ जो दिन में दिखाई देने वाली चाँदनी की दो तरङ्गों के समान जान पड़ते थे ऐसे ढोरते हए दो यक्ष, निर्मल चमरों के छल से उन भगवान् को सेवा करते थे तथा भव्यजीवों का समूह रत्नमय दर्पण के समान जिसमें अपने अतीत जन्मों के समूह को देखता था ऐसा उनके शरीर का आभूषणस्वरूप भामण्डल था ॥ ४७ ॥ जो वन के समान नाना पत्रलताओं ( पक्ष में अनेक वेलबूटों ) से सहित था, जो खुले हुए मुखो से युक्त सिंहों से सहित था ( पक्ष में जो सिंहाकार पायों से सहित था ) रत्न और मकरों से सहित होने के कारण जो दूसरे समुद्र के समान था, ऊँचा था, सुवर्णमय था, सुर-असुर जनों के द्वारा जिसकी सेवा को जा रही थी तथा जो सुमेरु पर्वत की शिखर के समान जान पड़ता था ऐसा उन जिनेन्द्र भगवान् का देदीप्पमान सिंहासन था ॥ ४८ ॥ तदनन्तर जब उन जिनेन्द्र भगवान को दिव्यध्वनि नहीं खिरी तब इन्द्र अपने अवधि ज्ञान के द्वारा दिखाये हुए गणधर को लाने के लिये गौतम ग्राम गया ॥ ४९ ॥ तत्पश्चात् वहां रहने वाले, गौतम गोत्र के प्रमुख तथा निर्मल बुद्धि और कीर्ति के द्वारा जगत् में प्रसिद्ध इन्द्रभूति ब्राह्मण को, छात्र का वेष रखने वाला इन्द्र, वाद के छल से जिनेन्द्र भगवान् के समीप ले आया
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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