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________________ प्रस्तावना भरतक्षेत्र के दक्षिण दिग्वर्ती तीन खण्डोंकी विजय प्राप्तकर त्रिपृष्ठ घर लौटा । त्रिपृष्ठके दो पुत्र और ज्योतिप्रभा नामकी पुत्री हुई। ज्वलनजटीने संसारसे विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली । ज्योतिप्रभाका विवाह अर्ककीतिके पुत्र अमिततेजके साथ हुआ । त्रिपृष्ठ रौद्रध्यानसे मरकर सप्तम नरकमें उत्पन्न हुआ। __ त्रिपृष्ठका जीव नरकसे निकलकर पुनः सिंहपर्यायको प्राप्त हुआ। मुनिराज उसे सम्बोधित करते हुए कहने लगे कि हे सिंह ! जिसने नरकमें घोर दुःख सहन किये हैं वह तू ही है। यह कहकर मुनिराजने नरकके घोर दुःखोंका वर्णन किया। मुनियुगल उस सिंहके मस्तकपर हाथ फेर रहे थे और सिंह आँखोंसे आँसू बहा रहा था। संबोधना देकर मुनिराज तो आकाशमार्गसे स्वेष्ट स्थानपर चले गये और सिंह संन्यासका नियम लेकर उसी शिलातलपर पड़ रहा । एक माहका उपवास कर अन्तमें प्राण-परित्याग करता हुआ वह सौधर्मस्वर्गमें हरिध्वज नामका देव हुआ। धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मेरुकी पूर्वदिशामें जो कच्छा नामका देश है उसके विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीपर हेमपुर नामका नगर है। उसी नगरके राजा कनकाभ और रानी कनकमालाके वह हरि ध्वजदेवका जीव कनकध्वज नामका पुत्र हुआ। कनकध्वजका विवाह कनकप्रभाके साथ हुआ । कनकप्रभाके दीक्षित होनेके बाद कनकध्वज राज्यका संचालन करने लगा । एक बार सुदर्शनवनमें सुव्रत मुनिराजके दर्शन कर वह संसारसे विरक्त हो गया। फलस्वरूप मुनिदीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करने लगा। अन्तमें वह कापिष्ठस्वगमें देव हुआ। अवन्तिदेशकी उज्जयिनीनगरी अपनी सम्पन्नतासे अत्यन्त प्रसिद्ध थी। वहाँ राजा वज्रसेन राज्य करते थे। उनकी सुशीला नामकी शीलवती और रूपवती स्त्री थी। कनकध्वज (त्रिपृष्ठ) का जीव कापिष्ठस्वर्गसे च्युत होकर इसी राजदम्पतीके हरिषेण नामका पुत्र हआ। हरिषेण भी तप कर महाशुक्रस्वर्गमें देव हुआ। पूर्वविदेहके कच्छदेशमें राजा धनंजय रहते थे। उनकी स्त्रीका नाम प्रभावती था। हरिषेणका जीव महाशुक्रस्वर्गसे च्युत होकर इसी राजदम्पतीके प्रियमित्र नामका पुत्र हआ। धनंजयने मुनिदीक्षा ले ली। राज्यका संचालन प्रियमित्र करने लगा। इसकी आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ जिससे यह चक्रवर्तीके रूपमें प्रकट हुआ। नौ निधियों और चौदह रत्नोंका स्वामी प्रियमित्र चक्रवर्ती एक दिन दर्पणमें श्वेत बाल देखकर संसारसे विरक्त हो गया। विरक्तचित्त प्रियमित्रने तीर्यकरके समवसरण में जाकर भक्तिभावसे तीर्थकरकी वन्दना की । तीर्थकरका विस्तृत उपदेश हुआ। प्रियमित्र चक्रवर्ती अरिंजय पुत्रको राज्य सौंपकर दीक्षित हो गया । तपश्चरणपूर्वक संन्यासमरण कर वह सहस्रारस्वर्गमें सूर्यप्रभ नामका देव हुआ। स्वर्गके सुख भोगकर वह श्वेतातपत्रा नामक नगरीमें नन्दन नामका राजा हुआ। नन्दन स्वभावसे ही सौम्य था। नीतिपूर्वक राज्यका संचालन करनेके बाद उसका मन संसारसे विरक्त हो गया। उसने तत्त्वज्ञानी मुनिराजसे अपने पूर्वभवोंका वर्णन सुना। फलस्वरूप वह वर्महर पुत्रको राज्य सौंप कर दीक्षित हो गया। कठिन तपश्चर्या करते हुए उसने दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिन्तन कर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया । अन्तमें समाधिमरण कर वह पुष्पोत्तर विमानमें बीस सागरकी आयुवाला देव हुआ। इधर भरतक्षेत्र सम्बन्धी कुण्डपुर नामक नगरमें राजा सिद्धार्थ रहते थे। उनकी स्त्रीका नाम प्रियकारिणी अथवा त्रिशला था। प्रियकारिणीने रात्रिके पिछले पहर ऐरावत हाथी आदि सोलह स्वप्न देखे । फल पूछनेपर राजा सिद्धार्थने बताया कि तुम्हारे तीर्थकर पुत्र होगा। स्वप्नोंका फल सुनकर प्रियकारिणीकी
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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