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________________ २२४ वर्द्धमानचरितम् अधिखड्गधारमिव शातमसुकरतरं यथागमम् । ज्ञाननिधिरपि चरन्सुतपः सहधर्मसु प्रकृतिवत्सलोऽभवत् ॥४५ कनकावली परिसमाप्य विधिवदपि रत्नमालिकाम् । सिंहविलसितमुपावसदप्युरुमुक्तये तदनु मौक्तिकावलीम् ॥४६ अथ भव्यचातकगणस्य मुदमविरतं प्रवर्द्धयन् । ज्ञानजलशमितपापरजाः शुशुभे सदा मुनि नभस्यवारिदः ॥४७ अपरिग्रहोऽपि स महद्धिरभवदमलाङ्गभागपि ।' क्षीणतनुरतनुधीश्च वशी विभयोऽपि गुप्तिसमितिप्रवर्तनः ॥४८ अमितक्षमामृतजलेन मनसि निरवापयत्परम् । क्रोधशिखिनमविचिन्त्यमहो खलु कौशलं सकलतत्त्ववेदिनाम् ॥४९ मनसो निराकुरुत मानविषमुचितमार्दवेन सः। ज्ञानफलमिति तदेव परं कृतबुद्धयो हि यमिनां प्रचक्षते ॥५० अपि जातु न प्रकृतिसौम्यविशद हृदयः स मायया। प्रापि विमलशिशिरांशुचयः समवाप्यते किमु तमिस्रया शशी ॥५१ की प्रभावना करते थे ॥ ४४ ।। तलवार की धार के समान तीक्ष्ण अत्यन्त कठिन सुतप का आगम के अनुसार आचरण करते हुए वे मुनि ज्ञान के भाण्डार होकर भी सहधर्मी जनों में स्वभाव से वत्सल-स्नेह युक्त रहते थे ॥ ४५ ॥ तदनन्तर उत्कृष्ट मुक्ति को प्राप्त करने के लिये उन्होंने कनकावली व्रत को विधिपूर्वक समाप्त कर रत्नावली, सिंहनिष्क्रीडित और मौक्तिकावलीव्रत के भी उपवास किये थे ॥ ४६ ॥ इस प्रकार जो भव्य जीव रूपी चातक समूह के हर्ष को निरन्तर बढ़ा रहे थे तथा ज्ञानरूपी जल के द्वारा जिन्होंने पाप रूपी धूलि को शान्त कर दिया था ऐसे वे मुनि रूपो भाद्रमास के मेघ सदा सुशोभित हो रह थे ॥ ४७ ।। वे मुनि परिग्रह से रहित होकर भी महद्धि-बहुत सम्पत्ति से सहित ( पक्ष में बड़ी बड़ी ऋद्धियों से युक्त ) थे, निर्मल शरीर से युक्त होकर भी क्षीणतनु-दुर्बल ( पक्ष में तपश्चरण के कारण क्षीण शरीर ) थे, विशाल बुद्धि के धारक होकर भी वशी-पराधीन ( पक्ष में जितेन्द्रिय ) थे, और निर्भय होकर भी गुप्ति समिति प्रवर्तन-रक्षा साधनों के समूह को प्रवर्ताने वाले ( पक्ष में तीन गुप्तियों और पांच समितियों का पालन करने वाले थे ॥ ४८ ।। उन्होंने मन में विदामान तीव्र क्रोधाग्नि को अपरिमित क्षमा रूपी अमृत जल से बुझा दिया था सो ठीक ही है क्योंकि समस्त तत्त्वज्ञानियों की कुशलता निश्चय से अचिन्त्य होती है ॥ ४९ ॥ उन्होंने उचित मार्दव धर्म के द्वारा मन से मानरूपी विष का निराकरण किया था सो ठीक ही हैं क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्य मुनियों के ज्ञान का वही उत्कृष्ट फल कहते हैं । भावार्थ-मान नहीं करना ही मुनियों के ज्ञान का फल है ऐसा बुद्धिमान् पुरुष कहते हैं ॥ ५० ॥ जिनका हृदय स्वभाव से सौम्य और स्वच्छ था ऐसे वे मुनि कभी भी माया के द्वारा प्राप्त नहीं किये गये थे सो ठोक ही है क्योंकि निर्मम और शीतल किरणों के समूह से सहित चन्द्रमा क्या कभी अंधेरी रात के द्वारा प्राप्त किया जाता १. मुनिर्नभसीव वारिदः ब० । २. मनसा म०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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