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________________ ३०८ वर्धमानचरितम्ं वंशस्थम् अथ पूर्वोपर क्रियादिका निवृत्तिकाख्या परमस्य कीर्तिता । नरेन्द्र शुक्लस्य समस्तदृष्टिभिर्भवत्ययोगस्य तदन्यदुर्लभम् ॥१५१ उपजातिः mere विद्धि कुशाग्रबुद्धे वितर्कवीचारयुते' निकामम् । पूर्वे द्वितीयं त्रिजगत्प्रदीपैजिनैरवीचारमिति प्रणीतम् ॥१५२ बुधा वितर्क श्रुतमित्युशन्ति वीचार इत्याचरणप्रधानाः । अर्थस्य च व्यञ्जनयोगयोश्च संक्रान्तिमाक्रान्तश मैक सौख्याः ॥ १५३ शार्दूलविक्रीडितम् ध्येयं द्रव्यमथार्थमित्यभिमतं तत्पर्ययो वापरो राजन्व्यञ्जनमित्यहि वचनं यो गोऽङ्गवाक्चेतसाम् । प्रस्पन्दः परिवर्तनं यदुदितं संक्रान्तिरित्यञ्जसा स्वालम्ब्यैकतमं क्रमेण विधिना कृत्स्नेषु चार्थादिषु ॥ १५४ द्रव्याणुं सुवशीकृताक्षतुरगो भावाणुमप्याहतो ध्यायन्प्राप्त वितर्कशक्तिरनघः सम्यक्पृथक्त्वेन यः । अर्थादीन्मनसा क्रमाच्च शमयन् संसर्पतोन्मूलयन् मोहस्य प्रकृतीरसौ वितनुते ध्यानं सदाद्यं मुनिः ॥ १५५ ध्यान है ऐसा समस्त लोक को देखने वाले सर्वज्ञ भगवान् कहते हैं ।। १५० ।। हे राजन् ! सर्वदर्शी भगवान् ने उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान का व्युपरत क्रियानिवर्ति नाम कहा है । यह ध्यान योग रहित जीव होता है अन्य जीवों के लिये दुर्लभ है ।। १५१ ।। हे कुशाग्रबुद्धे ! आदि के दो ध्यान एक पदार्थ आश्रय से होते हैं तथा वितर्क और विचार से युक्त होते हैं परन्तु तीनों लोकों के प्रकाशक जिनेन्द्र भगवान् के द्वितीय शुक्ल ध्यान को विचार से रहित कहा है ।। १५२ ।। जिनके आचरण प्रधानता है तथा प्रशम और अद्वितीय सुख जिन्हें प्राप्त हो चुका है ऐसे ज्ञानी पुरुष श्रुत के वितर्क और अर्थ, शब्द तथा योग के परिवर्तन को विचार कहते हैं ।। १५३ || हे राजन् ! ध्यान - करने योग्य जो द्रव्य है वह 'अर्थ है' ऐसा माना गया है। इसी प्रकार उस द्रव्य की जो वर्तमान पर्याय अथवा अन्य पर्याय है वह भी 'अर्थ है' ऐसा स्वीकृत किया गया है । आगम के वचन को 'व्यञ्जन है' ऐसा जानो । काय वचन और मन का जो परिस्पन्द है वह योग है । इन सब का जो परिवर्तन है उसे 'सङ्क्रान्ति' इस प्रकार कहा गया है । इन अर्थ आदि समस्त वस्तुओं-अर्थ, व्यञ्जन और योग इन तीनों में से किसी एक का विधि पूर्वक क्रम से आलम्बन लेकर जो आदर - पूर्व द्रव्याणु अथवा भावाणु का भी ध्यान करता है, जिसने इन्द्रिय रूपी घोड़ों को अच्छी तरह वश कर लिया है, जिसे वितर्क शक्ति - आगम के अर्थ विचार की सामर्थ्य प्राप्त हो चुकी है, जो १. गते म० । २. प्रधानाम् ब० । ३. योगाङ्गवाक्चेतसाम् म० । ४. मप्यादितो म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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