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________________ १९८ वर्धमानचरितम् उपजातिः आबाधमानासु मिथो जनीषु मनोभवाग्निप्रभवारणीषु । यः कूर्मवत्संवृतचित्तमास्ते स्त्रीणां स बाधां सहते महात्मा ॥११० शार्दूलविक्रीडिम् नन्तुं चैत्ययतीन्गुरूनभिमतान्देशान्तरस्यातिथेः पन्थानं निजसंयमानुसदृशं काले' यतः स्वोचिते। भिन्नाभ्रेरपि कण्टकोपलचयैः पूर्वस्वयुग्यादिनो यानस्यास्मरतः सतामभिमतस्तस्यैव चर्याजयः ॥१११ वसन्ततिलकम् भूभृद्गुहादिषु पुरा विधिवनिरीक्ष्य वीरासनादिविधिना वसतो निकामम् । सर्वोपसर्गसहनस्य मुनिषद्यापीडाजयो दुरितवैरिभिदोऽवसेयः ॥११२ ध्यानागमाध्ययनभूरिपरिश्रमेण निद्रां मनाग् गतवतः स्थपुटोर्वरायाम् । कुन्थ्वादिमनभियाऽचलिताङ्गयष्टे: शय्यापरीषहजयो यमिनोऽवगम्यः ११३ शार्दूलविक्रीडितम् । मिथ्यात्वेन सदावलिप्तमनसां क्रोधाग्निसंदीपकं निद्यासत्यतमादिवाक्यविरसं संशृण्वतोऽप्यश्रवम् । तव्यासङ्गविवजितेन मनसा क्षान्ति परां बिभ्रत स्तस्याक्रोशपरीषहप्रसहनं ज्ञेयं यतेः सन्मतेः॥११४ काम रूपी अग्नि को उत्पन्न करने के लिये अरणि नामक लकड़ी के समान स्त्रियों के परस्पर वाधा करने पर भी जो कछुए के समान गूढ चित्त रहता है वह महात्मा स्त्री परीषह को सहन करता है ॥ ११० ॥ जो प्रतिमा, मुनि अथवा अभीष्ट गुरुओं को नमस्कार करने के लिये अन्य देश का अतिथि हुआ है, जो अपने योग्य काल में स्वकीय संयम के अनुरूप मार्ग को प्राप्त हुआ है तथा कण्टक और पत्थरों के समूह से पैरों के विदीर्ण हो जाने पर भी जो पहले काम में आये हुए अपने अश्व आदि वाहनों को स्मरण नहीं करता है उसी मुनि का चर्या परिषह जय सत्पुरुषों के लिये मान्य है ॥ १११ ॥ जो पहले विधिपूर्वक देख कर पर्वत की गुहा आदि में वीरासन आदि की विधि से अधिकतर निवास करता है, समस्त उपसर्गों को सहन करता है तथा पापरूपी बैरी को नष्ट करता है उसी मनि के निषा परीषह जय जानना चाहिए ॥ ११२ ॥ जो ध्यान तथा आगम के अध्ययन से उत्पन्न बहुत भारी परिश्रम के कारण ऊंची नीची पृथिवी पर थोड़ी निद्रा को प्राप्त हुआ है और कुन्थु आदि जीवों के मर्दन के भय से जो अपने शरीर को विचलित नहीं करता है करता है-करवट भी नहीं बदलता है ऐसे साधु का शय्या परीषह जय जानना चाहिये ॥ ११३ ॥ जिनका मन मिथ्यात्व के द्वारा सदा गर्वित रहता है ऐसे लोगों के १. यतेः म०, यतः गच्छत २. भिया बलिलाङ्गयष्टे व० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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