SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० वर्धमानचरितम् भावैरथानन्तगुणं समस्तै रादानकाले रसमात्महेतोः। स्थानः समुत्पादयति स्वयोग्यैः कर्मप्रदेशेष्वखिलेषु जीवः ॥७५ शार्दूलविक्रीडितम् एकद्वित्रिचतुभिरित्यभिहितो बन्धोऽनुभागोऽङ्गिना ___घातीनां सकलावबोधनयनैः स्थानैश्चतुर्णां जिनैः । राजन् द्वित्रिचतुभिरेकसमये स्वप्रत्ययेनाहृतः शेषाणां च भवेच्छुभाशुभफलप्राप्तः परं कारणम् ॥७६ वसन्ततिलकम् ज्ञानेक्षणावरणदेशवृतिश्च यान्ति विघ्ननु वेदसहिताश्चरमाः कषायाः। स्थानैश्चतुभिरिति सप्तदश त्रिभिश्च सप्तोत्तरं शतमुपैत्यनुभागबन्धम् ॥७७ जीव, कर्मों के ग्रहण काल में अर्थात् प्रकृति बन्ध के समय ही आत्म निमित्तक अपने योग्य भाव रूप स्थानों के द्वारा समस्त कर्म प्रदेशों में जो अनन्त गुणा रस उत्पन्न करता है वह अनुभाग बन्ध कहलाता है । ७५ ॥ हे राजन् ! पूर्णज्ञान रूपो नेत्रों के धारक जिनेन्द्र भगवान् ने ऐसा कहा है कि प्राणियों के जो चार घातिया कर्मों का अनुभाग बन्ध होता है वह एक, दो, तीन और चार स्थानों से होता है तथा शेष कर्मों का अनुभाग बन्ध अपने कारणों से होता हुआ एक समय में दो, तीन और चार स्थानों से होता है। यह अनुभाग बन्ध जीवों के शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति का परम कारण है । भावार्थ-अनुभाग बन्ध के शक्ति को अपेक्षा लता, दारु, अस्थि और शैल ये चार भेद हैं अर्थात् इनमें जिस प्रकार क्रम क्रम से अधिक कठोरपना है उसी प्रकार अनुभाग में भी उत्तरोत्तर कठोरपना है। घातिया कर्मों में लता आदि चारों भेद रूप अनुभाग होता है और शेष कर्मों में लता भेद को छोड़ कर शेष दो, तीन और चार भेद रूप अनुभाग होता है। यह अनुभाग, मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में संभव होने वाले अपने परिणामों के अनुसार होता है। यह अनुभाग ही जीवों के शुभ-अशुभ फल का प्रमुख कारण है। इस तरह मूल प्रकृतियों के अनुभाग बन्ध का वर्णन कर आगे उत्तर प्रकृतियों के अनुभाग बन्ध को चर्चा करते हैं ।। ७६ ॥ ज्ञानावरण और दर्शनावरण की देशघाति सम्बन्धी सात प्रकृतियाँ (चार ज्ञानावरण और तीन दर्शनावरण ), अन्तराय की पांच प्रकृतियाँ, पुंवेद एक और संज्वलन कषाय की चार प्रकृतियाँ ये सत्तरह १. समस्तैः स दानकाले म० । २. चतुभिरेव विहितो म० । ३. परः कारणम् म० । ४. अत्र संदर्भे कर्मकाण्डस्येमा गाथा द्रष्टव्याः सत्ता य लदादारूअट्ठीसेलोवमाह घादीणं । दारु अणंतिमभागोत्ति देसघादी तदो सव्वं ॥ १८० ।। देसोत्ति हवे सम्मं तत्तो दारू अणंतिमे मिस्सं । सेसा अणंतभागा अद्विसिला फट्टया मिच्छे ।। १८१ ॥ । चदुविधभावपरिणदा तिविधा भावा हु सेसाणं ॥ १८२ ॥ अवसेसा पयडीओ अघादिया घादियाण पडिभागा । ता एव पुण्णपावा सेसा पावा सुणेसत्ता ।। १८३ ।।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy