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________________ १८७ पञ्चदशः सर्गः उपजातिः' शुद्धयष्टकस्यागमविद्धिरुत्तमक्षमादिकानां विषयप्रभेदतः । सद्धिः प्रमादा नरनाथ कीर्तितास्त्वनेकभेदा इति जैनशासने ॥६४ वंशस्थम् कषायभेदानथ पञ्चविंशति वदन्ति सन्तः सह नोकषायकैः। दशत्रिभिर्योगविकल्पमेकतः परं च विद्याद्दश पञ्चभिर्युतम् ॥६५ शार्दूलविक्रीडितम् एते पञ्च हि हेतवः समुदिता बन्धस्य मिथ्यादृशो मिथ्यात्वेन विना त एव गदिताः शेषास्त्रयाणामपि । मिश्रा चाविरतिश्च देशविरतस्यान्ये विरत्या विना षष्ठस्य त्रय एव केवलमिति प्राज्ञैः प्रमादादयः॥६६ कहते हैं ॥ ६३ ॥ हे नरनाथ ! आगम के ज्ञाता सत्पुरुषों ने थ ! आगम के ज्ञाता सत्पुरुषों ने आठ शुद्धियों तथा उत्तम क्षमादिक धर्मों के विषय भेद से जिनागम में प्रमाद के अनेक भेदों का वर्णन किया है । भावार्थ भाव, काय, विनय, ईर्यापथ, भैक्ष्य, शयनासन, प्रतिष्ठापन और वाक्य शुद्धि के भेद से शुद्धियों के आठ भेद होते हैं। उत्तम क्षमा, मार्दव आदि धर्म के दश भेद प्रसिद्ध हैं। इन सब विषयों के भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का माना गया है । ६४ ॥ सत्पुरुष हास्यादिक के कषायों के साथ मिला कर कषाय के पच्चीस भेद कहते हैं। एक विवक्षा से योग के तेरह और दूसरी विवक्षा से पन्द्रह विकल्प जानना चाहिये । भावार्थ-मन, वचन, काय के निमित्त से आत्म प्रदेशों में जो परिस्पन्द होता है उसे योग कहते हैं। सामान्य रूप से इसके मनोयोग, वचनयोग और काययोग की अपेक्षा तीन भेद होते हैं। इनमें मनोयोग और ववनयोग के सत्य, असत्य, उभय और अनूभय के भेद से चारचार भेद होते हैं और काय योग के औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मणकाय के भेद से सात भेद होते हैं। इन सबको मिलाने से योग के पन्द्रह भेद होते हैं। इनमें आहारक और आहारक मिश्र ये दो योग कदाचित ही किसी षष्ठगुण स्थानवर्ती मुनि के होते हैं इसलिये उनकी विवक्षा न होने पर योग के तेरह भेद और उनको विवक्षा होने पर पन्द्रह भेद होते हैं ऐसा जानना चाहिये ॥ ६५ ॥ मिथ्यादृष्टि जीव के ये पांचों बन्ध के कारण हैं। सासादन, मिश्र और असंयत सम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानवी जीवों के मिथ्यात्व के बिना चार बन्ध के कारण हैं। देश विरत के मिश्र अविरति, तथा कषाय प्रमाद १. इन्द्रवंशावंशस्थयोर्मेलनापजातिः ।। २. प्रमादोऽनेकविधः ॥ ३० ॥ भावकायविनयर्यापथभक्ष्यशयनासनप्रतिष्ठापनवाक्यशुद्धिलक्षणाष्टविधसंयमउत्तमक्षमामार्दवावशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्यादिविषयानुत्साहभेदादनेकविधः प्रमादोऽवसेयः । राजवातिक अ०८ सू०१ ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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