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________________ १८५ पञ्चदशः सर्गः इन्द्रवंशा क्रोधस्य' लोभस्य च भीरुताया हास्यस्य चाभित्यजनं प्रचक्षते। सूत्रानुसारेण च भाषणं बुधाः सत्यव्रतस्यापि च पञ्च भावनाः ॥५५ वंशस्थम् परोपरोधाकरणं विसजिते गृहे च शून्ये वसतिः स्वपक्षके। सदाऽविसंवाद इति प्रचक्षते सुभैक्ष्यशुद्धया सह पञ्च भावनाः ॥५६ शार्दूलविक्रीडितम् स्त्रीरागादिकथाश्रुतेविरमणं तच्चारुतालोकन त्यागः पूर्वरतोत्सवस्मृतिपरित्यागो विदामुत्तमैः । वृष्येष्टादिरसस्य वर्जनमपि स्वाङ्गप्रमोदक्रियापायः पञ्च च भावना निगदिता ब्रह्मव्रतस्य स्फुटम् ॥५७ उपजातिः मनोहरेष्वप्यमनोहरेषु सर्वेन्द्रियाणां विषयेषु पञ्चसु । सुरागविद्वेषविवर्जनं सतामकिञ्चनत्वस्य च पञ्च भावनाः ॥५८ अहिंसा व्रत की भावनाएं कहते हैं ।। ५४ ॥ क्रोध, लोभ, भीरुत्व और हास्य का त्याग करना तथा आगम के अनसार वचन बोलना इन सबको सत्पुरुष सत्यव्रत की पांच भावनाएं कहते हैं ॥ ५५ ॥ परोपरोधाकरण-अपने स्थान पर ठहरते हुए मनुष्य को नहीं रोकना, विमोचित गृहावास, शून्य गृहावास, अपने पक्ष में सदा विसंवाद नहीं करना और उत्तम भैक्ष्यशुद्धि इस सबको अचौर्य व्रत की पांच भावनाएं कहते हैं। ५६ ॥ स्त्रियों में रागादि बढ़ाने वाली कथाओं के सुनने का त्याग करना, उनकी सुन्दरता के देखने का त्याग करना, पूर्व काल में भोगे हए रतोत्सव के स्मरण का त्याग करना, कामोत्तेजक इष्ट रसादि का त्याग करना, और अपने शरीर को प्रसन्न करने वाली क्रियाओं का त्याग करना, उत्तम ज्ञानी जनों के द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत की ये पाँच भावनाएँ स्पष्ट रूप से कही गई हैं ।। ५७॥ समस्त इन्द्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों में राग द्वेष का त्याग करना ये पांच अपरिग्रह व्रत को भावनाएं हैं ॥ ५८॥ १. प्रथमपाद इन्द्रवज्राया। २. इतोऽग्रे म० पुस्तके श्लोकोऽयमधिको दृश्यते परन्तु पुनरुक्तत्वाद्ग्रन्थस्याङ्गं न प्रतिभाति शून्याश्रयोद्वसपुरावसतिप्रवेशावन्योपरोधकरणं परसाक्षिहेतोः । भिक्षान्नशुद्धिसहधर्मचरानुवादावते च चौरिकमहाव्रतपञ्चदोषाः ।। ३. प्रायः म० ब०। ४. अत्र प्रथमः पाद उपेन्द्रवज्राया द्वितीयः पाद इन्द्रवंशायाः शेषौ द्वौ वंशस्थस्य । २४
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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