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________________ १७० वर्धमानचरितम् दुःप्रापां सकलनृपाधिराजलक्ष्मीं प्राप्यापि प्रमदमसौ तथा न भेजे । बिभ्राणः सकलमणुव्रतं यथावत्सम्यक्त्वं सहजमथौज्ज्वलं च राजा ॥१३ तस्येयुः परमरयोऽपि सच्चरित्रैराकृष्टाः स्वयमुपगम्य किङ्करत्वम् । शीतांशोरिव किरणाः सतां गुणौघा विश्वासं विदधति कस्य वा न शुभ्राः ॥ १४ एकस्मिन्नथ दिवसे सभागृहस्थं विज्ञातो नरपतिमभ्युपेत्य कश्चित् । संभ्रान्तो नतिरहितं मुदैवमूचे को दिष्टया भवति सचेतनो महत्या ॥१५ शालायाममलरुचां वरायुधानामुत्पन्नं विनतनरेन्द्रचक्र चक्रम् । दुःप्रेक्ष्यं दिनकर कोटिबिम्बकल्पं यक्षाणामधिपगणेन रक्ष्यमाणम् ॥१६ तत्रैव स्फुरितमणिप्रभापरीतो दण्डोऽभूदसिरपि शारदाम्बराभः । प्रत्यक्षं यश इव ते मनोऽभिरामं पूर्णेन्दुद्युतिरुचिरं सितातपत्रम् ॥१७ संसर्पत्करनिचयेन रुद्धदिक्कश्चूलाख्यो मणिरुदपादि कोशगेहे । काकिण्या सममचिरांशुराजिभासा भूपेन्द्र द्युतिविततेन चर्मणा च ॥१८ आकृष्टाः सुकृतफलेन रत्नभूता द्वारस्थाः सचिवगृहेशतक्ष मुख्याः । सेनानीकरितुरगाश्च कन्ययामा काङ्क्षन्ति क्षितिप भवत्कटाक्षपातम् ॥१९ शीघ्र ही दोक्षित हो सुशोभित होने लगा सो ठीक हो है क्योंकि संसार के कष्ट को दूर करने वाली तपस्या किस मुमुक्षु की शोभा के लिये नहीं होती ? ॥ १२ ॥ राजा प्रियमित्र दुर्लभ साम्राज्य लक्ष्मी को पाकर भी उस प्रकार के हर्ष को प्राप्त नहीं हुआ था जिस प्रकार कि यथोक्त समस्त अणुव्रतों और नैसर्गिक निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करता हुआ हर्ष को प्राप्त हुआ था । भावार्थ - उसने राजलक्ष्मी को पाते ही पूर्व संस्कारवश निर्मल सम्यग्दर्शन और अणुव्रतों को धारण कर लिया था ॥ १३ ॥ उसके सदाचार से आकृष्ट हुए शत्रु भी स्वयं आकर अत्यधिक किङ्करता को प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल सत्पुरुषों के गुणों के समूह किसे विश्वास उत्पन्न नहीं करते ? ॥ १४ ॥ तदनन्तर किसी एक दिन राजा सभागृह में बैठे हुए थे उसी समय संभ्रम में पड़ा हुआ कोई परिचित मनुष्य आया और नमस्कार किये बिना ही हर्ष से इस प्रकार कहने लगा सो ठीक ही है। क्योंकि बहुत भारी भाग्योदय होने पर सचेतन - विचाराविचार की शक्ति से सहित कौन होता - है ? ॥ १५ ॥ हे राजाओं के समूह को नम्र करने वाले राजन् ! निर्मल कान्ति के धारक उत्कृष्ट शस्त्रों की शाला में वह चक्ररत्न प्रकट हुआ है जिसका देखना भी शक्य नहीं है, जो करोड़ों सूर्यबिम्बों के समान है तथा यक्षेन्द्रों का समूह जिसकी रक्षा कर रहा है ।। १६ ।। उसी शस्त्रशाला में देदीप्यमान मणियों की प्रभा से व्याप्त दण्ड और शरद् ऋतु के आकाश के समान कान्तिवाला असि रत्न भी प्रकट हुआ है । पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्ति से सुन्दर वह सफेद छत्र प्रकट हुआ है जो तुम्हारे साक्षात् यश के समान मन को आनन्दित करने वाला है || १७ || हे राजेन्द्र ! कोशगृह में बिजलियों के समूह के समान कान्तिवाली काकिणी और कान्ति से व्याप्त चर्मरत्न के साथ ऐसा चूड़ामणि रत्न उत्पन्न हुआ है जिसने चारों ओर फैलती हुई किरणों के समूह से सब दिशाओं को व्याप्त कर रक्खा है ॥ १८ ॥ हे राजन् ! पुण्य के फल से आकृष्ट होकर द्वार पर खड़े
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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