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________________ नवमः सर्गः निरीक्ष्य शूरं व्रणविलाङ्ग तेजस्विनं हन्तुमपीहमानम् । जघान कश्चित्कृपया न साधुर्न दुःखितं हन्ति महानुभावः ॥३२ गूढप्रहाराकुलितो मुखेन कश्चिद्वमन्संततमस्त्रधाराम् । मध्येरणं शिक्षितमिन्द्रजालं नराधिपानां प्रथयन्निवासीत् ॥३३ उरःस्थले कस्यचिदप्य सह्या शक्तिः पतन्ती न जहार शक्तिम् । मनस्विनामाहवलालसानां तन्नास्ति यद्दर्पविनाशहेतुः ॥ ३४ इन्दीवरश्यामरुचिः पतन्ती वन्तोज्ज्वला चारुपयोधरोरुः । वेक्षस्यरेः खङ्गलता चकार प्रियेव वीरं सुखमीलिताक्षम् ॥३५ अरातिना प्रत्युरसं विभिन्नः कुन्तेन कश्चित्तदनु प्रधावन् । ददंश तं दुःसहमग्रकण्ठे वंशानुगः क्रुद्ध इव द्विजिह्नः ॥३६ परेण सद्यो निजकौशलेन हस्तेकृता संयति खङ्गधेनुः । मृत्योरभूत्कारणमात्मभर्तुर्दुष्टेव वेश्या धनुमुष्टिवाह्या ॥ ३७ १०७ अर्थात् उन्हें पकड़ कर नहीं रखता ॥ ३१ ॥ कोई तेजस्वी शूर वीर घावों से विह्वल शरीर होकर भी मारने के लिये चेष्टा कर रहा था उसे देख साधुप्रकृति के किसी योद्धा ने दयावश उसे नहीं मारा सो ठीक ही है क्योंकि दुःखी मनुष्य को महानुभाव — सहृदय मनुष्य मारते नहीं हैं ॥ ३२ ॥ गूढ प्रहार से व्याकुल हुआ कोई योद्धा मुख से निरन्तर खून की धारा को उगल रहा था उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानों सीखे हुए इन्द्रजाल को युद्ध के बीच राजाओं के सामने प्रकट ही कर रहा था ॥ ३३ ॥ किसी के वक्षःस्थल पर पड़ती हुई असह्य शक्ति — शक्ति नामक शस्त्र ने उसकी शक्ति-सामर्थ्य को नष्ट नहीं किया था सो ठीक ही है क्योंकि वह वस्तु नहीं है जो कि युद्ध की लालसा रखनेवाले तेजस्वी मनुष्यों के गर्वनाश का कारण हो सके ।। ३४ ।। जो इन्दीवर — नील कमल के समान श्याम कान्ति वाली थी, दन्तोज्ज्वला – चमकदार नोक से युक्त थी ( पक्ष में उज्ज्वल दाँतोंवाली थी ) चारुपयोधरोरु : – सुन्दर जल को धारण करनेवाली तथा विशाल थी (पक्ष में सुन्दर स्तन और जांघों से युक्त थी) साथ ही शत्रु के वक्षःस्थल पर पड़ रही थी ऐसी तलवाररूपी लता ने प्रिया के समान उस वीर को सुख से निमीलित नेत्र कर दिया था । भावार्थ — जिस प्रकार प्रिया के आलिङ्गन से मनुष्य निमीलित नेत्र हो जाता है उसी प्रकार तलवार के आलिङ्गन से कोई वीर निमीलित नेत्र हो गया था अर्थात् मर गया था ।। ३५ ।। शत्रु ने किसी योद्धा के वक्षःस्थल में भाला से प्रहार किया उससे घायल होकर अपने वंश-कुल का अनुसरण करता हुआ वह क्रुद्ध साँप के समान उसके पीछे दौड़ा और दौड़कर उसने उसके कण्ठाग्रभाग में ऐसा काटा कि उसे असह्य हो गया ।। ३६ ।। जिसप्रकार धन की मुट्ठी से प्राप्त करने योग्य किसी दुष्ट वेश्या को कोई अन्य मनुष्य अपनी चतुराई से शीघ्र ही अपने अधीन कर लेता है तो वह अपने पूर्वभर्ता की मृत्यु का कारण बन जाती है उसी प्रकार युद्ध में किसी की कटार को किसी अन्य योद्धा ने अपनी चतुराई से अपने हाथ में कर लिया तो वह कटार अपने पूर्वभता की मृत्यु का कारण हो गई । भावार्थ - किसी योद्धा ने अपनी चतुराई से किसी की कटार छीन ली और उससे उसी १. वक्षस्यहो म० । २. जीवन्धर ० म० । ३. हस्तीकृता म० ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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