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________________ नवमः सर्गः समीपगैरप्यविभाव्यमानसंधानमोक्षातिशया विरेजुः । आलेख्ययोधा इव योधमुख्याः सदावकृष्टोन्नतचारुचापाः ॥१८ छिन्नेऽपि हस्ते सुभटासिघातैविहस्ततामाप तथा न दन्ती। अदन्तचेष्टं निजदन्तयुग्मे भग्ने यथा शत्रुगजं जिघांसुः ॥१९ कुन्दावदातस्तुरगोऽश्ववारे प्रासप्रहारैः पतितेऽपि तिष्ठन् । तदन्तिके तस्य पराक्रमेण पुजीकृतो वर्ण इव व्यराजत् ॥२० मर्मप्रहाराकुलितोऽपि कश्चित्प्राणान्दधौ तावदनूनसत्त्वः । शक्नोषि कि प्राणितुभाभावाद्यावन्न वाणीमिति वक्ति नाथः ॥२१ छिन्नं च चक्रेण शिरः करेण वामेन संधार्य रुषा परीतः। स्वसंमुखं कश्चिदरि जघान कोपो हि शौर्यस्य परः सहायः ॥२२ परेण मल्लेन विलूनगव्यां धनुर्लतां स्वाभिमतां हि कश्चित् । मुमोच जायामिव चारुवंशां कृताभियोगां विगुणो हि हेयः ॥२३ घनास्रपङ्कषु निमग्नचक्रान्रथाँस्तुरङ्गाः शरदारिताङ्गाः। ऊहुः कथञ्चिद् द्विगुणीकृताघ्रिप्रेवबला घुघुरशब्दघोणाः ॥२४ गृद्धो भुजं कस्यचिदाजिरङ्गादामूललूनं गगने गृहीत्वा। कृतावदानस्य जयध्वजं वा वीरस्य बभ्राम समन्ततोऽपि ॥२५ छोड़ने के अतिशय को नहीं जान पा रहे थे तथा जिनको ऊँचे और सुन्दर धनुष सदा खिचे रहते थे ऐसे मुख्य योद्धा उस समय चित्रलिखित योद्धाओं के समान सुशोभित हो रहे थे ॥ १८ ॥ शत्रु के हाथी को मारने की इच्छा करने वाला हाथी, सुभट की तलवार के प्रहारों से सैंड के कट जानेपर भी उस प्रकार की विहस्तता-विवशता ( पक्ष में सूंड से रहितता ) को प्राप्त नहीं हुआ था जिस प्रकार कि अपने दोनों दाँतों के भग्न हो जानेपर दाँतों की चेष्टा नष्ट हो जाने से हुआ था ॥ १९ ॥ भालों के प्रहार से घुड़सवार के गिर जानेपर भी उसके समीप खड़ा हुआ कुन्द के फूल के समान सफेद घोड़ा ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों पराक्रम से इकट्ठा हुआ उसका यश ही हो ॥२०॥ अत्यधिक धैर्य से युक्त कोई योद्धा मर्मघाती प्रहार से आकलित होनेपर भी तब तक प्राणों को धा रहा जब तक कि उसके स्वामी ने दयाभाव से यह शब्द नहीं कहे कि क्या तुम श्वास ले सकते हो ? ।। २१ ॥ क्रोध से युक्त कोई योद्धा चक्र से कटे हए शिर को बाँये हाथ से पकड़ कर अपने सामने स्थित शत्रु को मारता रहा सो ठीक ही है क्योंकि क्रोध ही शूर वीरता का परम सहायक है ॥ २२॥ जिस प्रकार कोई मनुष्य चारुवंशा-उच्चकुल में उत्पन्न अपनी इष्ट स्त्री को अभियोगअपराध किये जाने पर छोड़ देता है उसी प्रकार शत्रु द्वारा भाले से जिसकी डोरी कट गई थी ऐसी चारुवंशा-उत्तमबांस से निर्मित अपनी इष्ट धनुर्लता को किसी योद्धा ने छोड़ दिया था सो ठीक ही है क्योंकि गुणरहित पदार्थ छोड़ने के योग्य होता ही है ॥२३॥ जिनके अंग वाणों से विदीर्ण हो गये हैं, झुककर दूने हुए पैरों से जिनका बल जाता रहा है तथा जिनकी नाक से घुघुर शब्द हो रहा है ऐसे घोड़े सघन रुधिररूप की कीचड़ में फंसे हए रथों को किसी तरह बड़ी कठिनाई से खींच रहे थे ॥२४॥ जड़ से कटी हुई किसी की भुजा को रणाङ्गण से उठाकर एक गीध आकाश १. अदन्तचेष्टान्निजदन्तयुग्मे म० । १४
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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