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________________ नवमः सर्गः खुराभिघातप्रभवो हयानां पांसुनवाम्भोधरजालसान्द्रः । अग्रेऽभवत्तद्बलयोर्महीयान्निवारयन्युद्धमिव स्वधाम्ना ॥३ मौर्वीनिनादानितरेतराणां वित्रासितेभाश्वविभीतपत्तीन् । आकर्ण्य हृष्टाङ्गरुविदध योधैः परो वीररसानुरागः ॥४ पत्त पदातिस्तुरगं तुरङ्गो रथं रथस्यो द्विरदं मदेभः । अवाप कोपेन विनापि हन्तुं सेवामतो नेच्छति पापभीरुः ॥५ रजोवितानैर्नवकाशशुः शुभ्रीकृताः श्मश्रुशिरोरुहेषु । मृत्योरिदं योग्यमितीव मत्वा वृद्धत्वमीयुर्युधिनो युवानः ॥६ धनुविमुक्ता निशिताश्च वाणा दूरस्थितानामपि वमतेषु । अङ्गेषु तस्थुर्न महीतले वा गुणच्युतः को लभते प्रतिष्ठाम् ॥७ अन्योऽन्यमाहूय विनापि वैरं भटा भटाञ्जघ्नुरुदारसत्त्वाः । स्वामिप्रसादस्य विनिःक्रयाय प्राणव्ययं वाञ्छति को न धीरः ॥८ अनन्तरङ्गः स्वनृपस्य कश्चिद्ददाह चित्तं निजवल्लभानाम् । अग्रेसरत्वं प्रतिपद्य धावन्नरातिशस्त्रैरवदारितोऽपि ॥९ छिन्नोऽपि जङ्घाद्वितये परेण खङ्गप्रहारैर्न पपात शूरः । अखण्डितं चापमिवात्मसत्त्वमालम्ब्य तस्थौ घनवंशजातम् ॥१० १०३ युद्ध के लिये बुला ही रहे थे ||२|| घोड़ों के खुरों के प्रहार से उत्पन्न तथा नवीन मेघसमूह के समान सान्द्र जो बहुत भारी धूलि उन दोनों सेनाओं के आगे विद्यमान थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानों अपने तेज से युद्ध को रोक ही रही हो || ३ || हाथी घोड़े और कायर सैनिकों को भयभीत कर देनेवाले परस्पर की प्रत्यञ्चाओं के शब्दों को सुनकर जिनके रोमाञ्च खड़े हो गये थे ऐसे योद्धाओं ने वीररस के बहुत भारी अनुराग को धारण किया था ||४|| उस समय पैदल सैनिक पैदल सैनिक को, घोड़ा घोड़े को रथ पर बैठा हुआ रथ को और मदोन्मत्त हाथी हाथी को मारने के लिये क्रोध के बिना ही उसके सन्मुख पहुँच गया था सो ठीक ही है क्योंकि इसीलिये पाप से डरनेवाला मनुष्य ऐसी सेवा की इच्छा नहीं करता है ||५|| काश के नवीन फूल के समान सफेद धूलि के समूह से मूंछों और शिर के केशों में शुक्लता को प्राप्त हुए तरुण योधा उस समय ऐसे जान पड़ते थे मानों 'यह अवस्था मृत्यु के योग्य है' यह मानकर ही वृद्धावस्था को प्राप्त हो गये थे || ६ || धनुषों से छूटे पैने वाण, दूर खड़े हुए भी सैनिकों के कवचयुक्त शरीरों पर स्थित नहीं हो सके सो ठीक ही ही है क्योंकि गुणों — डोरी (पक्ष में शूर वीरता आदि गुणों) से छूटा हुआ कौन पुरुष पृथिवीतल में प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है ? अर्थात् कोई नहीं ||७|| महापराक्रमी योद्धा, वैर के विना ही परस्पर एक-दूसरे को बुलाकर मारने लगे सो ठीक ही है क्योंकि स्वामी के प्रसाद का बदला चुकाने के लिये कौन धीर मनुष्य प्राण त्याग की इच्छा नहीं करता है ? ||८|| आगे आगे दौड़ने वाला कोई योद्धा यद्यपि शत्रु के शस्त्रों से विदीर्ण हो गया था तो भी वह अपने राजा का अन्तरङ्ग — प्रमुख प्रीतिपात्र नहीं बन सका इसलिये वह अपनी स्त्रियों के हृदय को जला रहा था - दुःखी कर रहा था || ९ || कोई एक शूर-वीर, शत्रु द्वारा तलवार के प्रहारों से दोनों जङ्घाओं में घायल होने पर भी नीचे नहीं १. निशिताः पृषत्काः म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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