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________________ सप्तमः सर्गः नयवर्त्मनि यः सुनिश्चितं यतते तस्य न विद्यते रिपुः । ननु पथ्यभुजं किमामयः प्रभवत्यत्वमपि प्रबाधितुम् ॥२६ अयथाभिनिवेशितः फलं किमुपायः कुरुते समीहितम् । विभावमुपैति किं पयः सहसा म्यस्तमथामभाजने ॥२७ मृदुनैव विभिद्यते क्रमात्परिपूर्णोऽपि रिपुः पुरः स्थितः । प्रतिवत्सरमापगारयः सकलं किं न भिनति भूधरम् ॥२८ मृदुना सहितं सनातनं भुवि तेजोऽपि भवत्यसंशयम् । दशयाथ विना सतैलया ननु निर्वाति न कि प्रदीपकः ॥ २९ अत एव च तत्र सामतः प्रविधेयं कल्यामि नापरम् । ध्रुवमित्यभिधाय सुश्रुतो विररामान्यनतानि वेदितुम् ॥३० अथ तस्य निशम्य भारतों कुपितान्तःकरणः परंतपः । विजय विजयश्रियः पतिर्निजगादेति बच्चो विचक्षणः ॥३१ पठितं न कोऽपि किं वदेदभिसंबन्धविवजिताक्षरम् । नयवत्स बुधैः प्रशस्यते कुरुते यस्य वचोऽर्थसाधनम् ॥ ३२ परिकुप्यति यः सकारणं नितरां सोऽनुनयेन शाम्यति । अनिमित्तरुषः प्रतिक्रिया क्रियतां केन नयेन कथ्यताम् ॥३३ ७९ संतप्त नहीं किया जा सकता है ।। २५ ।। जो सुनिश्चितरूप से नीतिमार्ग में चलता है उसका कोई शत्रु नहीं रहता सो ठीक ही है, क्योंकि पथ्य का सेवन करनेवाले मनुष्य को क्या रोग थोड़ा भी कष्ट पहुँचा सकता है ? अर्थात् नहीं ।। २६ ।। जिसका प्रयोग ठीक नही किया गया है ऐसा उपाय अभीष्ट कार्य को करता है ? अर्थात् नहीं करता। जिस प्रकार कि कच्चे बर्तन में रक्खा हुआ दूध क्या शीघ्र ही दही पर्याय को प्राप्त होता है ? अर्थात् नहीं होता ।। २७ ।। सामने खड़ा हुआ सबल शत्रु भी कोमल उपाय के द्वारा ही क्रम से नष्ट किया जाता है सो ठीक ही है; क्योंकि प्रतिवर्ष आनेवाला नदी का पूर क्या समस्त पर्वत को नहीं भेद देता है ? अर्थात् अवश्य भेद देता है ॥२८॥ इसमें संशय नहीं है कि पृथ्वी पर तेज भी कोमलता से युक्त होकर ही स्थायी होता है; क्योंकि सैल सहित बत्ती के बिना क्या दीपक बुझ नहीं जाता है ? अर्थात् अवश्य बुझ जाता है || २९ ॥ इसलिये उस अश्वग्रीव पर साम उपाय से ही प्रतीकार करना चाहिये, मैं अन्य उपाय को निश्चित ही ठीक नहीं समझता हूँ इस प्रकार कहकर सुश्रुत मन्त्री अन्य मन्त्रियों का मत जानने के लिये हो गया ॥ ३० ॥ अथानन्तर सुश्रुत मन्त्री की उपर्युक्त वाणी सुनकर जिसका अन्तःकरण कुपित हो रहा था, जो शत्रुओं को संतप्त करनेवाला था, तथा विजयलक्ष्मी का अधिपति था ऐसा बुद्धिमान् विजय इस प्रकार के वचन बोला ॥ ३१ ॥ जिसके अक्षर पूर्वापर सम्बन्ध से रहित है ऐसे पढ़े हुए पाठ को क्या तोता भी नहीं बोल देता है ? परन्तु वहो नीतिज्ञ मनुष्य विद्वानों के द्वारा प्रशंसित होता है जिसका वचन प्रयोजन की सिद्धि करता है ॥ ३२ ॥ जो मनुष्य किसी कारण से कुपित होता है वह अनुनय-विनय के द्वारा अत्यन्त शान्त हो जाता है परन्तु जो निष्कारण ही क्रोध करता है उसका प्रतिकार किस नय से किया जावे ? यह कहो ॥ ३३ ॥ तीव्र क्रोध से युक्त मनुष्य के लिये हितकारी प्रिय वचन कहे जावें तो वे शान्ति के कारण तो नहीं होते किन्तु क्रोध
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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