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________________ ७२ वर्धमानचरितम् अन्तर्मदं करिपतेरिव बृ' हितानि प्रातः करा इव दिनेशमुदीयमानम् । लोकाधिपत्यमपि भावि विनान्तरायं प्रख्यापयन्ति पुरुषस्य विचेष्टितानि ॥५४ यस्तादृशं मृगर्पात मृगराजराजकोटीबलं नवमृणाल मिवाङ्गुलीभिः । स्वैरं व्यदारयदथैककरेण दधे येनातपत्रमिव कोटिशिला व्युदस्य ॥५५ यं च स्वयं ज्वलनजट्युपगम्य विद्वान् कन्याप्रदानविधिपूर्वमुपास्त धीरः । तेजोनिधिः स कथमद्य तवाभियोज्यो यातव्य इत्यभिवदामि वद त्रिपृष्ठः ॥५६ ( युग्मम् ) चक्र श्रिया परिगतोऽहमिति स्वकीये गर्व वृथा मनसि मानद माकृथास्त्वम् । किं वा विमूढमनसामजितेन्द्रियाणां संपत्सुखाय सुचिरं परिणामकाले ॥५७ तस्मान्न कार्यमभियानमनात्मनीनमेतत्तव प्रति नरेश्वरमीश्वरस्य । इत्थं निगद्य सचिवः परिणामपथ्यं तूष्णीम्बभूव मतिमान्नहि वक्त्यकार्यम् ॥५८ साथ राजा को सन्धि कर लेनी चाहिये, ऐसा नीति शास्त्र के ज्ञाता पुरुषों ने कहा है । जो मनुष्य देव और पराक्रम की अपेक्षा वर्तमान में अपने से हीन है वह भी समय पाकर उन्नत और पूज्य हो जाता है अत: बुद्धिमान् मनुष्यों को सहसा उसकी भी निन्दा नहीं करनी चाहिये । भावार्थ-युद्ध प्रारम्भ करने के पहले अपनी ओर शत्रु की शक्ति का विचार करना चाहिये । वह शक्ति देव और पुरुषार्थ के भेद से दो प्रकार की है । यदि शत्रु इन दोनों शक्तियों की अपेक्षा अपने से सबल है तो उसके साथ युद्ध करना ही नहीं चाहिये । यदि शत्रु अपने समान है तो उससे सन्धि कर युद्ध का अवसर टाल देना चाहिये और यदि शत्रु उपर्युक्त दोनों शक्तियों की अपेक्षा अपने से हीन है तो भी उसके साथ बुराई नहीं करनी चाहिये क्योंकि आज जो हीन है वह कालान्तर में समुन्नत और पूज्य हो सकता है । तात्पर्य यह है कि युद्ध का प्रसङ्ग प्रत्येक अवस्था में त्याज्य है ॥ ५३ ॥ जिस प्रकार गजराज की गर्जनाएं उसके भीतर स्थित पद को सूचित करती हैं और प्रभात काल में प्रकट होनेवाली किरणें उदित होते हुए सूर्य को प्रख्यापित करती हैं उसी प्रकार मनुष्य की चेष्टाएं उसके आगे होनेवाले साम्राज्य को निघ्नि रूप से प्रसिद्ध करती हैं ॥ ५४ ॥ | जिसमें सिंह रूपी करोड़ों राजाओं के समान बल था ऐसे उस सिंह को जिसने अङ्गुलियों से स्वेच्छानुसार नवीन मृणाल के समान विदीर्ण कर दिया और इसके अनन्तर जिसने कोटिशिला को उठा कर एक हाथ के समान धारण किया। और विद्वान् तथा धीर-वीर ज्वलनजटी ने स्वयं जाकर कन्या प्रदान करते हुए जिसकी सेवा की ऐसा तेज का भाण्डार स्वरूप वह त्रिपृष्ट आज तुम्हारा शत्रु और चढ़ाई करने के योग्य कैसे हो गया ? यह मैं आपके संमुख कहता हूँ, उत्तर दीजिये ।। ५५-५६ || हे मानद ! 'मैं चक्र की लक्ष्मी से युक्त हूँ' तुम अपने मन में ऐसा अहंकार व्यर्थ ही मत करो क्योंकि जिनका चित्त अत्यन्त मूढ हैं तथा जिन्होंने इन्द्रियों को नहीं जीता है। ऐसे मनुष्यों की संपत्ति क्या फल काल में चिरकाल तक सुख के लिये होती है अर्थात् नहीं होती ॥ ५७ ॥ आप चक्रवर्ती हैं और ज्वलनजटी साधारण राजा है अतः आपको उसके प्रति अपने आप के लिये अहितकारी यह अभियान नहीं करना चाहिये । इस प्रकार फल काल में हितकारी वचन कह कर मन्त्री चुप हो गया सो छत्र ? ही है क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्य बेकार नहीं बोलता ॥ ५८ ॥ जिस प्रकार तम रात्रि-सम्बन्धि सघन १. विदारयदथैक ब० । २. शिलाभ्युदस्य ब० । ३. योध्यो म० । ४. इत्यपि वदामि म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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