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________________ वर्धमानचरितम् वसन्ततिलकम् अस्मिन्प्रतीहि भरते भरतेश वंशे राजा प्रजापतिरुदारयथार्थनामा। तस्यात्मजौ विजयिनौ विजयत्रिपृष्टावाद्यावमानुषबलौ बलवासुदेवौ ॥११० वंशस्थम् रिपुस्त्रिपृष्टस्य पुराभवेऽभवद्विशाखनन्दीत्ययमश्वकन्धरः । ततः प्रहत्याहवदुर्मदं रणे नभश्चरेन्द्रं भवितार्द्धचक्रभृत् ॥१११ शालिनी तस्मादेतत्खेचरावाससारं कन्यारत्नं वासुदेवाय देयम् । निःसन्देहं तत्प्रसादादुदीची प्राप्य श्रेणी यास्यसि त्वं च वृद्धिम् ॥११२ मन्दाक्रान्ता इत्यादेशादवितथगिरस्तस्य कार्तान्तिकस्य ध्वस्ताशङ्क ज्वलनजटिना प्रेषितं विद्धि दूतम् । मामिन्द्वाख्यं घटयितुमिदं देव कल्याणकार्य कार्याभिज्ञं स्थिरतरधिया त्वत्सकाशं प्रकाशम् ॥११३ शार्दूलविक्रीडितम् श्रीमानागमनस्य कारणमिति व्यक्त निवेद्य स्थितं स्वाङ्गस्पृष्टसमस्तभूषणगणैरभ्यय॑ तं भूपतिः । मानामचिरादगोचरतया तस्यैव हस्ते पुनः संदेशं खचराधिपस्य मुदितः सप्राभृतं प्राहिणोत् ॥११४ स्रग्धरा क्षोणीनाथं प्रणम्यश्लथमुकुटतटोकोटिविन्यस्तहस्तः सोत्कान्विद्याधराणां पतिमनतिचिरादानय द्रष्टुमस्मान् । प्रजापति नामक राजा है ऐसा तुम जानो । उसके विजय और निपृष्ट नाम के दो पुत्र हैं जो शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाले हैं, लोकोत्तर बल से युक्त हैं तथा प्रथम बलदेव और नारायण हैं ॥ ११०॥ चूंकि त्रिपृष्ट का पूर्वभव का वैरी विशाखनन्दो ही यह अश्वग्रोव हुआ है इसलिये युद्धसम्बन्धी दुष्ट अहंकार से युक्त इस विद्याधर राजा को मार कर त्रिपृष्ट अर्द्धचक्रवर्ती होगा ॥१११।। अतएव विजया पर्वत का सारभूत यह कन्या रात्न नारायण त्रिपृष्ट के लिये देना चाहिये। इसमें सन्देह नहीं है कि तुम उसके प्रसाद से उत्तर श्रेणी को प्राप्त कर वृद्धि को प्राप्त होवोगे ।। ११२ ।। हे राजन् ! इस प्रकार उस सत्यवादो संभिन्न निमित्त ज्ञानी के आदेश से ज्वलनजटी ने निःशङ्क होकर कार्य के जानकर मुझ इन्दु नामक दूत को यह मङ्गलमय कार्य संपन्न करने के लिये दृढ निश्चय पूर्वक स्पष्टरूप से आपके पास भेजा है ऐसा आप जानें ॥११३॥ इस प्रकार अपने आगमन का स्पष्ट कारण बनाकर जब वह आगन्तुक विद्याधर ऊपर बैठ गया तब समृद्धिशाली राजा प्रजापति ने उसे अपने शरीर के स्पर्शको प्राप्त हुए समस्त आभूषणों के समूह से सम्मानित किया तथा शीघ्र ही विजया पर्वत पर मनुष्यों के न पहुँच सकने के कारण उसने उस विद्याधर के हाथ प्रसन्न होकर विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी के लिये उपहार सहित संदेश भेजा ॥११४।। तदनन्तर राजा प्रजापति को प्रणाम कर जिसने अपने हाथ नम्रीभूत मुकुट तट के अग्रभाग पर लगा रक्खे
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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