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________________ श्रीराजेन्द्रगुणभञ्जरी । नवाबसाहबने सूरजमुखी आपदागिरि आदि भेंट दिये॥१०४॥ फिर ये बुद्धिविचक्षण श्रीपूज्य मालव देशमें विचरकर अनेक श्रावकोंको प्रतिबोध देते हुए अपने ज्ञान क्रियादि गुणोंसे श्रीसंघके मनको खूब ही खुश किया ॥ १०५॥ या श्रेष्ठकुलीन से भी अधिक है । उसके घर का आहारादि लेना अनुचित नहीं है । इससे उलटा यदि उच्चकुलीन होकरके अपने आचार विचार को शुद्ध नहीं रखता तो पतित ही है। उसके घरका आहारादि लेना शास्त्र व शिष्टमर्यादासे निषिद्ध ही समझना चाहिये। तात्पर्य कि धर्ममात्र का ध्येय एक ही है, इसलिये ज्ञातियों के भेद उपभेद उसमें बाधक नहीं है। इस वास्तविक उत्तरसे नवाब साहब के हृदय में नये प्रकार का ज्ञान दीपक प्रगट हो गया और उन्होंने अपनी हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की। दीवान--- आपके पास अनेक स्त्रियाँ वन्दनार्थ आती हैं ऐसी दशा में आपका मन अचल कैसे रहता होगा ? उत्तर-मांस-लोलुपी जिह्वा मांसको देखकर ललचाये विना नहीं रह सकती । परन्तु सच्चे मुसलमान को सूअरके मांस पर घृणा हुए विना न रहेगी । इसी प्रकार हमारी दृष्टी रमणीमात्र में घृणाजनक वस्तुओं का पुंज देखती है और इसी कारण स्त्रियों के प्रति हमारा मन नहीं ललचाता । अतः हम स्त्रियाँमात्र को बहेन के समान मानते हैं, आपही कहिये ऐसी परिस्थिति में विकारभावना को स्थान किस प्रकार मिल सकता है ?, नहीं । इस उत्तर को पाकर दीवानसाहब भी बड़े प्रसन्न हुए और उपस्थित जनता में आपकी भूरि प्रशंसा की।
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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