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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। पूज्यश्च यतयोऽन्येऽपि, सम्मानविनयैः समम् । रत्नविजयपंन्यासा-च्छिष्यवत्पेठुरादरात् ॥ ८१ ॥ यतः-"गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते, न महत्योऽपि सम्पदः। पूर्णेन्दुन तथा वन्यो, निष्कलङ्को यथा कृशः ॥८२॥ शरीरस्य गुणानां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । शरीरं क्षणविध्वंसि, कल्पान्तस्थायिनो गुणाः" ॥८३।। जाताः षोडशविद्वांसो, हृष्ट्वा पूज्योऽथ तद्गुणैः। विद्यागुरुप्रतिष्ठायै, दफ्तरीतिपदं ददौ ॥८४ ॥ यतः-" गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणी, बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः । मधोर्गुणं वेत्ति पिको न वायसः, करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥ ८५ ॥ अब पंन्यास श्रीरत्नविजयजीका सन्मान विनय रखते हुए श्रीपूज्य व दूसरे यति भी सादर शिष्यकी तरह उनसे विद्याभ्यास करने लगे ॥ ८१ ।। क्योंकि-सब जगह गुण पूजे जाते हैं, किन्तु बड़ी बड़ी संपत्तियां नहीं, जैसे अकलङ्कित निर्बल दूजका चन्द्र वन्दन करने योग्य होता है, वैसा पूनमका नहीं ।। ८२ ॥ फिर शरीरके और गुणोंके परस्परमें बहुत ही अन्तर है, जैसे शरीर क्षणभरमें विनाशशील है, परन्तु कल्पान्त काल पर्यन्त स्थिर रहने वाले तो गुण ही हैं ॥८३।। अतः पं० रत्नविजयजीके शुभ परिश्रमसे सोलह यति विद्वान् हुए, वास्ते
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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