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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । अब रत्नराज सौभाग्यसंपत्तिका उत्तम स्थान रूप, सुदि पक्ष की दूज के चन्द्र तुल्य सुख से प्रतिदिन बड़ा होता हुआ सत्पुरुषों को अतीव खुश करने लगा ॥ ३६ ॥ जगामोत्संगमुत्संगात्, प्रतिक्षणमनाकुलः । राजहंसोऽतिहर्षेण, पंकजादिव पङ्कजम् ॥ ३७॥ क्रीडयन्तः समे बालं, संलापैस्तमनेकधा। सदुक्तिनृत्यतामापु-मोदचाटुलयोगतः ॥ ३८ ॥ स्वाऽऽसन्नवेइमवासिन्यः, प्रीतिबुद्धया सुयोषितः । प्राकुर्वन् तस्य सन्मानं, पानभोजनमज्जनैः ॥ ३९ ॥ सहसा वृद्धभावोऽस्य, बाल्येऽप्यासीत्सुपुण्यतः । नाकरोद् बालचापल्यं,किश्चिदप्यन्यदुःखदम् ॥४०॥ सोऽर्भकोऽपि करोतिस्म, यदा गूथादिकां क्रियाम् । तदा चक्रे च संकेतं, स्फुटं शश्वत्सुधीरधीः ॥ ४१ ॥ ___ जैसे राजहंस एक कमलसे दूसरे कमल पर जावे, वैसे ही वह समाधि युक्त सहर्ष प्रतिक्षण एक की गोद से अन्य प्रेमीकी गोदमें जाकर रमता था ।। ३७ ।। सभी कुटुम्बी उस बालक को अनेक प्रकार से खेलाते हुए समोद वाचालता के योग से सुवाक्य बोलने रूप नृत्य करते थे ।।३८॥ पड़ोसकी स्त्रियाँ भी प्रीतिकी बुद्धि से पान भोजन और स्नान द्वारा उसका सन्मान करती थीं ।। ३९ ॥ अकस्मात् सत्पुण्ययोग से बाल्यावस्थामें भी उसका वृद्धभाव था, अतएव वह किश्चिद्
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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