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________________ श्री राजेन्द्र गुणमञ्जरी । संसाराधितरं प्रमोदविजयाssसन्ने च दीक्षां ललौ, संजित्याक्षहयव्रजं निजगुणान् धत्ते स्वचित्तेऽनिशम् श्रीमत्सागरचन्द्रनामकयतेः सत्काव्यकोषादिकान्, यो जैनागममध्यगाच मतिमान् देवेन्द्रसूरेर्जवात । १७४ जिन्होंने एक समय बाल्यावस्था में श्रीविजय प्रमोदस्रिजी गुरुका सदुपदेश सुनकर शीघ्र ही वैराग्य रंगसे अति रञ्जित होकर स्वकुटुम्बकी आज्ञा युक्त विक्रम सं० १९०४ वैशाख सुदि ५ शुक्रवार के रोज श्रीप्रमोदसूरिजी के बड़े गुरुभ्राता श्रीमविजयजीके पास संसार रूप समुद्रको तिरनेके लिये जहाज के समान एवं संसारकी कुल बाधाओं को दूरकरने वाली ऐसी जैनी दीक्षा ग्रहण की और आपका शुभ नाम श्रीरत्नविजयजी रक्खा गया । तदनन्तर पाँच इन्द्रिय रूप अश्वोंके समुदाय को जीतकर अपने ज्ञान दर्शन चारित्रादि उत्तम गुणों को सदैव अपनी आत्मामें धारण किये || २ || पश्चात् बुद्धिशाली आपश्रीने खरतरगच्छीययतिप्रवर- श्रीमान् सागरचन्द्रजीसे सम्यक्तया काव्य, कोष, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, तर्क आदिका अभ्यास किया । इसी प्रकार तपागच्छीय - श्रीपूज्य श्रीदेवेन्द्रसूरिजीसे शंका समाधान सहित शीघ्र ही कुल जैनागमों का अध्ययन भी किया । श्री पूज्योऽखिल भारमर्पयदमुं गच्छस्य सोऽगाद्दिवं, तच्छिष्यस्य सुपाठयन् गुरुरथो जातो विवादो मिथः ॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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