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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। नाऽऽगतो भवता साध, चात्र वादचिकीर्षया । .. श्रावकाऽतिप्रणुन्नेन, कृतमेतद्धि दुष्कृतम् ॥ ३०७ ॥ समे सभ्या गुरोरेवं, दृष्ट्वा गौरवमद्भुतम् । स्वे स्वे स्थानेऽथ जग्मुस्ते, कुर्वन्तोऽस्य जयारवान् ।३०८। २७-अर्बुदतीर्थयात्रा, सिरोहीभूपसुगोष्ठी चअर्बुदस्थाऽऽदिनाथस्य, सद्यात्रा गुरुणा प्रभोः। कारिताऽखिलशिष्याणां, श्रीसंघेन समं मुदा ।।३०९।। तत्र संघेन हृष्टेन, विदधेऽष्टाहिकोत्सवः । स्वात्मानं सफलं मत्वा, खराडीमगमद् गुरुः ॥३१०॥ भवत्ख्यातिं निशम्यात्र, सिरोहीवसुधाधिपः । श्रीमत्केसरिसिंहाख्यो, दर्शनोत्कण्ठितोऽभवत् ३११ यहाँ मैं आपके साथ वादकी इच्छासे नहीं आया, किन्तु कतिपय श्रावकोंकी अति प्रेरणासे इस अयोग्य कार्यका साहस किया ॥ ३०७ । इस प्रकार गुरुमहाराजकी गुरुताको देखकर समी सभाके लोग गुरुकी जय जय बोलते हुए सहर्ष अपने अपने स्थान पर गए ॥ ३०८ ॥ .. - बाद गुरुमहाराजने १९५६ अक्षय तीजके रोज श्रीसंघके साथ सहर्ष सब शिष्योंको अर्बुदगिरिस्थ श्रीआदिनाथ प्रभुकी उत्तम यात्रा कराई ॥ ३०९ ॥ वहाँ बड़ी ही खुशीसे
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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