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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । निस्त्रपेणाऽविमर्शन, शिथिलाचारचारिणा। पण्डितंमन्यमानेन, दुर्धिया वादिनाऽमुना ॥ २९९ ।। शास्त्रे विधिप्रकाशे च, निजौद्धत्यप्रकाशिना । सद्गुर्वोरेतयोः कुत्सा, व्यलेख्यभवभीरुणा ॥३०॥ गुरुणा शब्दशास्त्राभ्यां, द्वाभ्यां शब्दो प्रसाधितौ । गतास्सभ्याश्चमत्कारं, वादिन्नस्ति किमेनयोः॥३०१॥ सं. १९६४ गुड़ाके चौमासेमें श्रीमद् विजयधनचन्द्र. सूरिजीसे भी वादमें यह पंन्यास हार गया था ॥२९८॥ इस नित्रपी अविचारी शिथिलाचारी पंडितमन्य असत्प्रलापी भवाभिनन्दी सुदुर्मति वादीने स्वनिर्मापित 'प्रतिक्रमणविधिप्रकाश' नामक ग्रन्थ में इन दोनों सद्गुरुओंकी स्वकपोलकल्पित पेटभर व्यर्थ निन्दा लिखी है ।।२९९-३००॥ अतः वाचकवृन्द ! वादी की यह भूतपूर्व घटना यहाँ लिखी है सो असंगत न समझें। बाद गुरुमहाराजने दोनों व्याकरणोंसे शब्द सिद्ध करके बतलाए और बोले कि-वादी इनके सिद्ध करने में क्या है ? यह देखकर सभ्य लोक चमत्कारको प्राप्त हुए ।। ३०१ ॥ समयेऽस्मिन् मिथः सभ्याः, सङ्केतेनाऽस्य वादिनः। निर्बलत्वं च दृष्ट्रेवं, जहसुः स्वस्वमानसे ॥३०२॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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