SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । एकाशीतितथैवाऽऽर्याः, स्वाचारैः समलंकृताः । श्रीप्रेम श्रीस्तु मानश्रीः, श्रीयुक्तश्च मनोहरः ||२२४|| ६४ यात्रिकत्रिसहस्रन्तु, मध्ये संघमिवर्षयः । षड्रीयुक्तास्त्वनेकेऽत्र, श्रावकाः पादचारिणः ॥ २२५॥ षड्रीकारास्त्वमी एकाहारी भूमिसंस्तारकारी, पद्भ्यां चारी शुद्धसम्यक्त्वधारी । यात्राकाले यः सचित्तापहारी, पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥२२६॥ सद्वस्त्रैर्वेष्टितानां च, गन्त्रीणां कथितं शतम् । पत्तीनां संघरक्षायै, त्रिशतं तेन रक्षितम् ॥ ५२७ ॥ प्रवीणा अश्ववाराश्च वाजिनो वेगवत्तराः । शतशश्चेलुरुष्ट्रास्तु, चतुःशतान्यनांसि वै ॥२२८॥ साध्याचार - विभूषित श्रीप्रेमश्रीजी, मानश्रीजी, मनोहर श्रीजी आदि ८१ साध्वियाँ थीं । संघमें तीन हजार यात्रीलोग थे और इनमें साधुओंके समान छः 'री' पालनेवाले अनेक श्रावक साथ थे । छः री के अर्थ इस प्रकार हैं१ एक टाइम भोजन करना, २ जमीन पर संथारा करना, ३ पैदल चलना, ४ निरतिचार सम्यक्त्व पालन करना, ५ सचित्तका त्याग करना, और ६ ब्रह्मचर्यमें रहना । यात्रा
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy