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________________ ર श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । छणं भत्तेणं, अपाणएणं च सत्त जत्ताओ । जो कुणइ सत्तुंजे, सो तइयभवे लहइ सिद्धिं ॥ २१७॥ वपुः पवित्रीकुरु तीर्थयात्रया, चित्तं पवित्रीकुरु धर्मवांछया । वित्तं पवित्रीकुरु पात्रदानतः, कुलं पवित्रीकुरु सच्चरित्रतः ॥ २९८ ॥ णमोकार के समान मंत्र, शत्रुञ्जय के समान तीर्थ, वीतराग के समान देव न हुआ, न होगा || २१४ ॥ शत्रुञ्जयगिरिके तरफ एक एक पैर गमन करने पर कोटिहजार भवों के किये हुए पापोंसे प्राणी छूट जाता है || २१५ ।। हजारों पाप और सैंकड़ों जीवों की हिंसा करनेवाले तिर्यञ्च भी इस तीर्थ की यात्रा कर स्वर्गको प्राप्त करते हैं ॥ २१६ ॥ जल रहित बेलाकी तपस्या से जो प्राणी शत्रुञ्जय की सात वार यात्रा करता है वह तीसरे भव में सिद्धिको पाता है । इसलिये तीर्थयात्रा से शरीरको, धर्मवांछा से चित्तको, पात्रदानसे धनको और उत्तम चरित्रसे कुल को पवित्र करो ।। २१७-२१८ ॥ श्री तीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु भ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिर संपदः स्युः, पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ २१९ ॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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