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{ ४५४ } आव नही आदर नही नहि नयनोमे नेह॥ तस घर कबु न जाइ जो कांचन वरपे मेह ॥ १८॥ आव है आदर है है नयनोमे नेह ॥ तस घर कबुन छोडीए जो पत्थर वरषे मेह ॥ १९॥ अणसमजुनी आगलें करवो नहि हितबोध ॥ बतावतां लइ आरसी नकटो करसे क्रोध ॥ २०॥ आठ पहोर सतसंग करे सदा विवेकी संग॥ तुलसी कोन वियोगसे लाग्यो नहि प्रभु रंग ॥२१॥ अंतर कपटी मुख रसी नाम प्रीतको लेत ॥ रहो दूर ए मित्रसे दगाखोर दुःख देत ॥ २२ ॥ अरथी जो लज्जा धरे सरे न स्वार्थ काम ॥ जो गणिका सरमाय तो मले न कवडी दाम ॥ २३ ॥ अदेखानी आंखभा कमला केरो रोग ॥ पीलुं देखे पर विशे रोग तणे संयोग ॥ २४ ॥ अरथीने अकल नहि कामी न गणे दोष ॥ स्नेही संकट नवि गणे लोभी नहि संतोष ॥ २५॥ आखानी आशा थकी अरधो तजवा जाय ॥ खोवे बने खांतथी ए मूरखनो राय ॥२६ ॥