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________________ (४४१) सजनस्य हृदयं नवनीतं यद्वदंति कवयस्तदलीकम् । अन्यदेहविलसत्परितापा-त्सजनो दवति नो नवनीतम् ॥ ६९॥ __ भावार्थ-सज्जन पुरुषोनुं हृदय नवनीत (माखण) जे, मृदु होय छे एम जे कविओ बोली गया छ-ते मिथ्या छे. जुओ, बीजाना देहने परिताप थवाथी सज्जनपुरुषy अंतर पीगळी जाय छे, परंतु माखण पीगळतुं नथी.६९ सौजन्यधन्यजनुषः पुरुषाः परेषां दोषानपास्य गुणमेव गवेषयंति । त्यक्त्वा भुजंगमविषाणि पटीरगर्भात सौरभ्यमेव पवनाः परिशीलयंति ७० भावार्थ-सौजन्यने धारण करनारा पुरुषो बीजाओना दोषने तजी दईने त्यां गुणनीज गवेषण करे छे. जुओ, चंदनना वृक्षो साथे सचोट थई गयेला सपोना विषने ग्रहण न करतां पवन तेना अंतर्गर्भमांथी मात्र सौरभ्य (सुगंध) नेज ग्रहण करीने फेलावे छे.७० सौजन्यामृतसिंधवः परहितप्रारब्धवीरव्रता
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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