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________________ ( २७ ) भावार्थ - ज्यां गुरुवचननी अपेक्षा नथी अने जे अंतरनी सर्व ग्रंथि ( गांठ ) ने बराजर भेदीने परम रहस्यने प्रगटावे छे एवी विमर्श ( विचार ) शक्ति जयवंत वरते छे. ७९ अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं बह्मापि नरं न रंजयति ॥ ८० ॥ भावार्थ - अज्ञ पुरुष सुखे समजी शके छे, अने विशेषज्ञ तो बहुज सहेलाईथी समजी शके छे, परंतु जे ज्ञानलवथी अर्धदग्ध छे, तेवा पुरुषने ब्रह्मा पण समजावी शके नहि. ८० अविनयभुवामज्ञानानां शमाय भवन्नपि प्रकृतिकुटिलाद्विद्याभ्यासः खलत्वविवृद्धये । फणिभयभृतामस्तूच्छेदक्षमस्तमसामसौ विषधरफणारत्नालोको भयं तु भृशायते ॥ ८१ ॥ भावार्थ - अविनयना स्थानरूप एवा अज्ञानने दूर करनार होवा छतां, स्वभावे कुटिलपासेथी विद्याभ्यास करतां खळपणानो वधारो थाय छे. जो के सर्पनी फ
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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