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________________ ( ३ ) मावार्थ - बहु मायावी ( शृगाल ) जनोने अगम्य अने ज्यां मुक्ताफलोनो प्रगटरीते आगम छे एवी साधुशालाने दुष्ट जनो सिंह गुफानी जेम दूर तजी दे छे. ५ अहो न वः स्वयं प्रज्ञा नवा गीतार्थसंगतिः । यदेवं व्यक्तनिःशूकाः शृणुतागमभाषितम् ॥ ६ ॥ 1 भावार्थ - अहो ! तमे आवा साक्षात् निर्दय ( क्रूर ) छो तेथी एम लागे छे के तमने पोताने प्रज्ञा (बुद्धि) नथी तेमज कोइ गीतार्थ ( साक्षर ) नी संगति पण नथी; माटे तमे आगम ( शास्त्र ) नुं कथन सांभळो. ६ अनर्थदंडं जानानः को धीमानंतकांतिकम् । नयत्येतावतो जंतून निर्मतून्केलिकौतुकैः ॥ ७ ॥ भावार्थ - अनर्थदंडने जाणतां छतां कयो धीमान् ( सुज्ञ ) पुरुष पोताना क्रीडाकौतुकथी आटला बधां निरपराधी प्राणीओने मरण पमाडे ? ७ अन्यो हृदि वचस्यन्य - श्चान्य एव पुमान् दृशि । एवं यासां विरोधोंऽगे कस्ताभ्यः सुखमिच्छति?८ भावार्थ - - जे स्त्रीओ पोताना हृदयमां अन्य पुरुषने
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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