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________________ इस तरह सम्यक अपेक्षाओं के स्पष्टीकरण द्वारा वस्तुगत वास्तविक धर्मों के प्रतिपादन का ही दूसरा नाम है स्याद्वाद । __स्याद्वाद का सरल अर्थ यह है कि सम्यक् अपेक्षा से वस्तु का बोध अथवा प्रतिपादन । जब तर्क युक्ति और प्रमाणों की सहाय से समुचित अपेक्षा को लक्ष में रख कर वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन किया जाता है तब उनमें किसी भी प्रकार के विरोध को अवकाश नहीं रहता। क्योंकि जिस अपेक्षा से प्रवक्ता किसी धर्म का किसी वस्तु में निदर्शन कर रहा हो यदि उस अपेक्षा से वस्तु में उस धर्म की सत्ता प्रमाणादि से अबाध्य है तो उसको स्वीकारने में अपेक्षावादीओं को कोई हिचक का अनुभव नहीं होता। सर्वज्ञ-तीर्थकरों के उपदेशों में से प्रतिफलित होने वाले जैनदर्शन के सिद्धान्तों की यदि परीक्षा की जाय तो सर्वत्र इस स्याद्वाद का दर्शन होगा । स्पष्ट है कि स्याद्वाद ही जैन दर्शन की महान बुनियाद है । सभी सिद्धान्तों की समीचीनता का ज्ञान कराने वाला स्याद्वाद है जिसमें सकल समोचीन सिद्धान्तों को अपने अपने सुयोग्य स्थान में प्रतिष्ठा की जाती है। संक्षेप में कहें तो प्रमाण से अबाधित सकल सिद्धान्तों का मनोहर संकलन ही स्याद्वाद है । अप्रामाणिक सिद्धान्तों का समन्वय करना स्याद्वाद का कार्य नहीं है । इस महान् स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रतिपादन जैन आगमों में मिलता है तथा उसके बाद रचे जाने वाले नियुक्ति ग्रन्थों में भी उसका प्रतिपादन है। उसके आधार पर दिवाकर सिद्धसेनसूरिजी हरिभद्रसूरिजी-देवसूरिजी आदि अनेक जैनाचार्यों ने स्याद्वाद के सिद्धान्त को अपने अपने सम्मतितर्क-अनेकान्त जयपताका-स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थों में पल्लवित किया जिसमें स्याद्वाद सिद्धान्त को यथार्थता की उद्घोषणा की गई और उसमें परवादीओं द्वारा दिये गये दूषणों का परिहार भा किया गया । पुनः नव्यन्याय की शैली से स्याद्वादी अभिमत भेदाभेदवाद आदि पर अनेक दूषण लगाये गये जिसका परिहार करके नव्यन्याय को शैली से ही स्याद्वादसिद्धान्त की पुनः प्रतिष्ठा करने का महत्त्वपूर्ण कार्य श्री यशोविजय महाराज ने “स्याद्वादरहस्य" आदि ग्रन्थों द्वारा पूर्ण किया । ६.-'स्याद्वादरहस्य' का वक्तव्य वीतराग स्तोत्र के अष्टम प्रकाश के आधार पर श्री यशोविजय महाराज ने स्याद्वादरहस्य में एकान्तवादोओं की मान्यताओं का खण्डन करके भगवान् ने जिस तरह सप्तभङ्गी के द्वारा स्याद्वादसिद्धान्त का उपदेश दिया है उसका सयुक्तिक समर्थन किया है। बौद्धादि दार्शनिक जो कि प्रकटरूप से स्याद्वाद सिद्धान्त का स्वीकार नहीं करते हैं वे भी अपने सिद्धान्तों की पुष्टि के लिये किस तरह स्याद्वाद का ही गुप्त आश्रय लेते है वह भी दृष्टान्तों के साथ बताया गया है ।
SR No.022623
Book TitleSyadvad Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Mahopadhyay
PublisherBharatiya Prachyatattv Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages182
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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