SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३ 'तत्त्वचिन्तामणि' को रचना के बाद जैनदर्शन में भी उसका अभ्यास शुरू हो गया था किन्तु उसको जटिलता के कारण सब उसका अभ्यास न कर सकते थे तो उसका परीक्षण और आलोचन के कार्य की तो आशा भी कहाँ ! किन्तु 'जैनं जयति शासनम्' इस न्याय से १७ वीं शताब्दी के शृङ्गार श्रीमद् उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने गुरुदेवों के पास जैनदर्शन को सूक्ष्म अभ्यास किया और काशी में जा कर जैनेतर दर्शनों का भी आमूलचूल अध्ययन किया । ' तत्त्वचिन्तामणि' तो उनके लिये मानों बालक्रीडा थी । अध्ययन के बाद यशोविजय उपाध्याय जी ने नव्यन्याय की शैली से ही नवोनन्याय के सिद्धान्तों को परीक्षा और समालोचना करना शुरु कर दिया । इतना ही नहीं, जैनदर्शन के प्राचोन सिद्धान्तों में कुछ भी परिवर्तन न करने पर भी नव्यन्याय की शैली से उनका इस ढंग से प्रतिपादन करना शुरु किया जिस को पढ कर आज नव्यन्याय के अनेक विद्वानों का मस्तक झुक जाता है । 'स्याद्वादरहस्य' भी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें स्थान स्थान पर चिन्तामणिकार और दीधितिटोकाकार के मतों को समीक्षा करके जैनन्याय के स्याद्वाद सिद्धान्त को नवोनन्याय को शैलो से सुप्रतिष्ठित करने का एक अनूठा प्रयास किया गया है । जिज्ञासा होगी कि 'स्याद्वाद किसको कहते हैं ?' ५- स्याद्वाद जैसे वेदान्तदर्शन का प्रधान अङ्ग अद्वैतवाद है, बौद्धदर्शन का प्रधान अङ्ग क्षणिकवाद है वैसे ही जैनदर्शन का प्रधान भन है स्याद्वाद । जगत् में एक जटील प्रश्न हर विचारकों के सामने उपस्थित होता है कि वस्तु आखरी स्वरूप क्या है ? जैसे जैसे इस प्रश्न पर विचार किया जाता है वैसे वैसे इस प्रश्न को जटीलता कम होने के स्थान में बढती ही रहती है । भिन्न भिन्न विचारकों की मति भी भिन्न भिन्न होती है और सब अपनी अपनी प्रतीति के अनुसार उस प्रश्न का समाधान देने की कोशिश करते हैं । इन समाधानों में से भी फिर अनेक प्रश्नों का जन्म होता है और उनके उत्तर में प्रवृत्त होने पर विचारमणिओं की संख्या भी बढती ही रहती है । कोई ऐसा भी विचारक जन्म लेता है जो इन विचारमणिओं में अपने एक विचार का धागा पिरोकर विचारमणिमाला के रूप में उन विचारों का गठन कर लेता है और इस तरह गठित किया गया विचारसंग्रह भी जगत् में दर्शन के नाम प्रसिद्ध होता 1 वस्तु के आखरी स्वरूप पर जैसे भिन्न भिन्न विचारों का आविर्भाव होता है वैसे ही प्राणिगण में बुद्धि में सबसे अग्रणी गिने जाने वाले मनुष्य को अपना जीवन किस ध्येय
SR No.022623
Book TitleSyadvad Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Mahopadhyay
PublisherBharatiya Prachyatattv Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages182
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy