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________________ वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप ७३ महावीर द्वारा प्रोक्त वसुदेवचरित का पुनराख्यान अपने शिष्य जम्बूस्वामी के लिए किया। इसी प्राचीन कथा को संघदासगणिवाचक ने अनुमानत: ईसा की तृतीय-चतुर्थ शती (अर्थात् जैन-सूत्रों के संकलन-काल) में गद्यकाव्य के रूप में उपन्यस्त किया। संघदासगणी ने जम्बूस्वामी के चरित से ही 'कथोत्पत्ति' अधिकार का प्रारम्भ किया है; क्योंकि सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी को ही वसुदेवचरित सुनाया था। राजा श्रेणिक के राज्यकाल में, राजगृह में, ऋषभदत्त वणिक् की पत्नी धारिणी से जम्बूस्वामी उत्पन्न हुए थे। स्वप्न में धारिणी को जम्बूफल का लाभ हुआ था, इसलिए नवजात पुत्र का नाम 'जम्बू' रखा गया। सुधर्मास्वामी से मोक्षमार्ग की प्राप्ति का उपाय जानकर जम्बू ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का निर्णय किया। माता-पिता के बहुत समझाने-बुझाने पर वह गृहस्थ-धर्म स्वीकार करने को राजी हो गये। आठ सार्थवाह-कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ। जम्बूस्वामी जब अपनी नववधुओं के साथ वासगृह में विराजमान थे, तभी जयपुर के राजा विन्ध्यराज का ज्येष्ठ पुत्र प्रभव नाम का चोर वहाँ आया। पिता के द्वारा उसके छोटे भाई प्रभु को राज्य मिलने के कारण प्रतिक्रियावश उसने विन्ध्यगिरि की तराई में चोरों का एक सनिवेश स्थापित किया था। उसे विविध विद्याएँ सिद्ध थीं। यहीं संघदासगणी ने जम्बूस्वामी और प्रभव के बीच सांसारिक सुखभोग के त्याग और ग्रहण के सन्दर्भ में, अनेक मनोरंजक और शिक्षाप्रद कथाओं और उपकथाओं के माध्यम से, रोचक संवाद उपस्थित किया है। इसी क्रम में जम्बूस्वामी के पूर्वभव की आश्चर्यजनक कथा भी उपन्यस्त की गई है। अन्त में, जम्बूस्वामी के उपदेश से प्रभावित होकर प्रभव ने उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया और उनसे विदा लेकर वैभारगिरि पर जाकर रहने लगा। श्रामण्य के अनुपालन के कारण प्रभव चोरपति के पर्याय से मुक्त होकर प्रभवस्वामी हो गया। जम्बूस्वामी की कथा के क्रम में विद्युन्माली देव की तपोविभूति की बात सुनकर राजा श्रेणिक ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया : “भगवन् ! तप करके इसी भव में फल प्राप्त करनेवाले कितने जीव हैं और दूसरे भव में पुण्यफल प्राप्त करनेवाले कितने? भगवान् ने उत्तर दिया : “अपने तप का इसी भव में फल प्राप्त करनेवाले धम्मिल्ल आदि अनेक हो गये हैं और अवसर्पिणी-काल में, परलोक में तप का मूल्यरूप देव-मनुज-सुख पानेवाले वसुदेव आदि हैं।" यह सुनकर राजा को बड़ा कुतूहल हुआ। उनके कुतूहल को शान्त करने के लिए भगवान् ने वसुदेवचरित प्रारम्भ करने के पूर्व, राजा से 'धम्मिल्लचरित' कहा (कथोत्पत्ति : पृ. २६) । 'धम्मिल्लचरित' की कथावस्तु : __ इस प्रकार, संघदासगणी ने अपने कथा-नैपुण्य से 'धम्मिल्लचरित' की आनुषंगिकता को वसुदेवचरित की मूलकथा से जोड़ने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। फलस्वरूप, 'धम्मिल्लहिण्डी' अपने-आपमें स्वतन्त्र कथा होते हुए भी ‘कथोत्पत्ति' अधिकार का एक अभिन्न अंग बन गया है। साथ ही, जैसा पहले उल्लेख किया गया, धम्मिल्ल का परम साहसिक रोमांचकारी चरित ही वसुदेव के साहसपूर्ण विस्मयकारी चरित की पूर्वपीठिका के रूप में प्रस्तुत हुआ है।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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