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________________ उपसमाहार ५६७ प्रेम, सौन्दर्य-बोध, जीवन-सम्भोग, भौगोलिक और ऐतिहासिक तत्त्व, दार्शनिक मतवाद साधु-जीवन आदि विभिन्न सांस्कृतिक विषयों के अतिरिक्त, तत्प्रत्यासत्त्या ललित कलाओं का भी सांगोपांग निरूपण किया गया है। भाषा-शैली और साहित्य-सौन्दर्य की दृष्टि से 'वसुदेवहिण्डी' के गद्यशिल्प की द्वितीयता नहीं है। कथाकार ने यथाप्रसंग अलंकृत गद्य की भी सृष्टि की है, जो बाणभट्ट की गद्यरीति का आदिस्रोत प्रतीत होता है। इस प्रकार, यह कथाग्रन्थ वैभवशाली बृहत्तर भारत की सभ्यता, संस्कृति और साधना; समाज और राजनीति एवं व्यापार और अर्थनीति आदि विषयों की विशाल महानिधि है। इसमें तत्कालीन भारतीय समाज के आध्यात्मिक उत्कर्ष और भौतिक समृद्धि का हृदयावर्जक चमत्कारी प्रतिबिम्ब उपलब्ध होता है। 'वसुदेवहिण्डी' के कथालेखक ने अपनी रचना-प्रक्रिया से यह सिद्ध कर दिया है कि उस युग में कथा की रचना-प्रक्रिया कथ्य तथा शिल्प की दृष्टि से पर्याप्त विकसित थी। इसकी गल्पशैली इतनी रमणीय है कि प्रबुद्ध कथाप्रेमियों को कथा के अन्तस्तल में प्रवेश करने के लिए बौद्धिक व्यायाम नहीं करना पड़ता, अपितु कथाशास्त्र के आचार्यों के शब्दों में, इसकी कथा ऐसी नई वधू की भाँति प्रतीत होती है, जो अनुरागवश स्वयं शय्या पर चली आती है। इससे इस कथाग्रन्थ का भावात्मक सौन्दर्य, कल्पना, बिम्ब और प्रतीकाश्रित पदशय्या का माधुर्य स्वतः स्पष्ट है। ___ कहना न होगा कि दिव्य भावों के भव्य विनियोग से परिपूर्ण तथा अनुदात्त जीवन को उदात्तता की ओर प्रेरित करनेवाली 'वसुदेवहिण्डी' कथा के क्षेत्र में ललित गद्य का अप्रतिम प्रतिमान उपस्थित करती है। कुल मिलाकर, शलाकापुरुष कृष्णपिता वसुदेव की आत्मकथापरक यह गद्यकृति जनजीवन से अनुबद्ध लौकिक कथाओं को अलौकिक भूमिका प्रदान करनेवाली कथा-सरिताओं से निर्मित महान् कथासागर है। यथाप्राप्य अपूर्ण 'वसुदेवहिण्डी' का कथा-विस्तार अट्ठाईस (बीच के दो लम्भों के लुप्त हो जाने से छब्बीस) लम्भों में किया गया है। 'वसुदेवहिण्डी' की ही लम्भबद्ध संरचना प्रणाली का उत्तरवर्ती विकास ग्यारहवीं-बारहवीं शती में, 'बृहत्कथामंजरी' तथा 'कथासरित्सागर' की लम्बकबद्ध रचना-पद्धति में मिलता है। इस प्रकार, परवर्ती संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-कथासाहित्य के आधारादर्श के रूप में 'वसुदेवहिण्डी' का अधिक मूल्य है। 'वसुदेवहिण्डी' के माध्यम से, ब्राह्मण-परम्परा और जैनश्रमण-परम्परा की कथाशैलियों में स्पष्ट अन्तर भी परिलक्षित होता है। श्रमण-परम्परा में ब्राह्मण-परम्परा के पौराणिक-ऐतिहासिक तत्त्वों के पुन: संस्कार की ओर अधिक आग्रह है। वैदिक सम्प्रदाय में भी शाप और वरदान की परम्परा है। किन्तु, नैतिक दृष्टि से इसका मूल्यांकन न करके इसे ऋषियों का सामर्थ्य और अधिकार मान लिया गया है। भले ही, उसके पीछे नीति की भावना हो, या अनीति की। ___वैदिक परम्परा में, ऋषियों के आचरण में संयम की वह कठोरता नहीं है, जो श्रमण मुनियों के चरित्र में दृष्टिगत होती है । इसके अतिरिक्त, वैदिक ऋषि, शाप या वरदान का प्रयोग परोपकार और लोक-कल्याण की अपेक्षा अधिकतर अपनी वैयक्तिक कामनाओं और लालसाओं की पूर्ति के हेतु ही करते दिखाई पड़ते हैं, फिर भी उनके आचरण में न कोई कलंक लगता था और न उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुँचता था। किन्तु, श्रमण मुनियों को, तनिक भी चारित्रिक स्खलन
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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