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________________ ५४८ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा होते हैं। कथाकार संघदासगणी द्वारा प्रस्तुत बिम्बों के अध्ययन से उनकी प्रकृति के साथ ही युग की विचारधारा का भी पता चलता है। कुल मिलाकर, बिम्ब एक प्रकार का रूपविधान है और ऐन्द्रिय आकर्षण ही किसी कलाकार को बिम्ब-विधान की ओर प्रेरित करता है । रूप-विधान होने के कारण ही अधिकांश बिम्ब दृश्य अथवा चाक्षुष होते हैं। कथाकार द्वारा निर्मित श्रावस्ती के एक मन्दिर तथा उसमें प्रतिष्ठत महिष-प्रतिमा का चाक्षुष बिम्ब-विधान द्रष्टव्य है: “मणुयलोगविम्हियच्छाए पस्सामि तत्थेगदेसे पुरपागारसरिसपागारपरिगयं विणयणयधरापगारवलयमुल्लोकपेच्छणिज्जमाऽऽययणं सुणिवेसियवलभिचंदसालियजालालोयणकवोयमापा)लिपविराइयकणयथूभियागं ओसहिपज्जलियसिहररययगिरिकूडभूयं । ... पस्सामि खंभऽट्ठसयभूसियं मंडवं विविहकट्ठकम्मोवसोहियं। बंभासणत्थियं च जालगिहमझगयं, सिलिट्ठरिट्ठमणिनिम्मइयकायं, पहाणसुररायनीलनिम्मियसिणिद्धसिंगं, लोहियक्खपरिक्खित्तविपुलकाकारणयणं, महामोल्लकमलरागघडियखुरप्पएसं, महल्लमुत्ताहलविमिस्सकंचणकिंकिणीमाला-परिणद्धगीवं, तिपायं महिषं पस्सिऊण पुच्छियो मया...।" (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २६८) अर्थात्, वहाँ (श्रावस्ती में) मैंने (वसुदेव ने) एक ओर मनुष्यलोक की दृष्टि को विस्मित करनेवाला मन्दिर देखा। वह मन्दिर नगर के प्राकार की तरह प्राकार से घिरा हुआ था; उस मन्दिर की भूमि विनय और नय से आवेष्टित प्रतीत होती थी; उसकी उज्ज्वलता बड़ी दर्शनीय थी, उसके छज्जे, अटारी और झरोखे बड़ी सुन्दरता से बनाये गये थे; उसके सोने के कंगूरे पर कपोतमाला विराज रही थी और उसका शिखर (गुम्बद) ओषधि से प्रज्वलित रजतगिरि (वैताढ्य पर्वत) की चोटी के समान था । •उस मन्दिर में मैंने आठ सौ खम्भों से विभूषित तथा विविध काष्ठकर्म से उपशोभित मण्डप देखा। इसके बाद तीन पैरोंवाला एक भैंसा देखा, जो जालगृह में ब्रह्मासन पर बैठा था; काले रत्न से उसके शरीर की सुन्दर रचना की गई थी; उत्तम चिकनी इन्द्रनीलमणि के सींग थे; लोहिताक्षमणि से गढ़ी गई उसकी बड़ी-बड़ी लाल आँखें थीं, कीमती पद्मरागमणि से उसके खुरों का निर्माण किया गया था और गले में मूल्यवान् मोती-जड़े सोने के घुघरुओं का माला पड़ी थी। प्रस्तुत अवतरण में मनोरम चाक्षुष बिम्ब ('ऑप्टिकल इमेज') का विधान हुआ है। इस ऐन्द्रिय बिम्ब में दृश्य के सादृश्य पर रूप-विधान तो हुआ ही है, उपमान या अप्रस्तुत के द्वारा भी संवेदन या तीव्र अनुभूति की प्रतिकृति के माध्यम से स्थापत्य-बिम्ब का हृदयावर्जनकारी निर्माण हुआ है। इसमें वास्तविक और काल्पनिक दोनों प्रकार की अनुभूतियों से निर्मित बिम्ब तथ्यबोधक भाव-विशेष का सफल संवहन करते हैं । कथाकार द्वारा वर्णित महिष और मन्दिर का यह इन्द्रियगम्य बिम्ब सौन्दर्यबोधक और सातिशय कलारुचिर भी है। मन्दिर की भूमि के नय-विनय से आवेष्टित होने में यद्यपि हमें कोई ऐन्द्रिय तथ्यबोधकता नहीं मिलती, तथापि इस सन्दर्भ की निश्चित अर्थवत्ता असन्दिग्ध है और इस दृष्टि से यह रूप-चित्रण विकसित बिम्ब की कोटि में परिगणनीय है। इसी क्रम में, कथाकार की उदात्त कल्पना द्वारा निर्मित मातंगदारिका नीलयशा का चाक्षुष बिम्ब द्रष्टव्य है : “अण्णम्मि य अवगासे सममऽसमीवे दिट्ठा य मया कण्णा कालिंगा मायंगी जलदागमसम्मुच्छिया विव मेघरासी, भूसणपहाणुरंजियसरीरा सणक्खत्ता विय सव्वरी, मायंगदारियाहिं सोमरूवाहिं परिविया कण्णा।...ततो धवलदसणप्पहाए जोण्हामिव करेंतीए ताए भणियं- एवं कीरउ, जइ तुम्हं रोयइ त्ति । कुसुमियअसोगपायवसंसिया मंदमारुयपकंपिया
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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