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________________ ३६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा तर्कसंगत होते हुए भी 'वसुदेवहिण्डी' और 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में आधाराधेय-सम्बन्ध मानना या इस प्रकार का वक्तव्य देना संगत नहीं है। किन्तु यह सत्य है कि 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' और 'वसुदेवहिण्डी' के रचयिताओं ने 'बृहत्कथा' की मूल सामग्री का स्वेच्छानुसार उपयोग किया। ब्राह्मण- परम्परा की इतनी चमत्कारपूर्ण विलक्षण कथा को श्रमण परम्परा में भी उपस्थित करना जैन मनीषियों के लिए परम आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी था । यह विस्मयकारी तथ्य ध्यातव्य है कि सारस्वत समृद्धि की दृष्टि से ब्राह्मण- परम्परा और श्रमण परम्परा के साहित्यिक रूपों की पारस्परिकता इतनी सघन और समान्तर है कि दोनों के बीच आधाराधेयता की विभाजक रेखा खींचना अतिशय कठिन कार्य है। इस सम्बन्ध में डॉ. जगदीशचन्द्र जैन की, 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में अनुपलब्ध कथावस्तु के 'वसुदेवहिण्डी' में पाये जाने की बात अधिक सबल नहीं प्रतीत होती । यद्यपि, डॉ. कीथ को 'वसुदेवहिण्डी' की प्रति देखने का अवसर नहीं मिला था, फिर भी उन्होंने यथाप्राप्त आधारों से यह सिद्ध कर दिया है कि "कश्मीरी ग्रन्थकारों की अपेक्षा बुधस्वामी ने अपनी रचना के आधार - ग्रन्थ 'बृहत्कथा' का कहीं अधिक सत्यता से अनुसरण किया है।"" 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' अपूर्ण रह गया है, किन्तु 'वसुदेवहिण्डी' भी तो पूर्ण नहीं है । संघदासगणी की विलक्षण और विमोहक कथा या प्रबन्ध-कल्पना को केवल 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' की अनुपलब्ध कथावस्तु न मानकर उसे उनका विचित्र नव्योद्भावन कहना अधिक उचित या न्यायसंगत होगा । डॉ. कीथ का अनुमान है कि सम्पूर्ण 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' अपने उपलब्ध अंश के समान ही विस्तार से लिखा गया था, तो उसमें पच्चीस हजार पद्य रहे होंगे। किन्तु उपलब्ध अंश उक्त ग्रन्थ का एक खण्डमात्र है। किसी समुचित प्रमाण के अभाव में यह नहीं कहा जा सकता कि यह प्रारम्भ में खण्डित है अथवा इसके प्रारम्भ में कश्मीरी रूपान्तरों तथा नैपाल- माहात्म्य में दिये हुए आख्यान' के समान प्रकृत कथा-संग्रह के उद्गम के सम्बन्ध में कोई विवरण भी कभी सम्मिलित था । यह सर्गों में विभक्त है, जिनमें अब केवल अट्ठाईस सर्ग अवशिष्ट हैं, जो सम्भवतया मूल ग्रन्थ का केवल एक अंशमात्र है, फिर भी इसमें लगभग साढ़े चार हजार से अधिक (४५३९) पद्य हैं। 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' की कथा सहसा मध्य से प्रारम्भ होती है : प्रद्योत की मृत्यु हो जाती है और उसका पुत्र गोपाल उसका उत्तराधिकारी होने को है, तभी उसको (गोपाल को ) इस बात की सूचना मिलती है कि प्रजा उसे ही अपने पिता की मृत्यु का कारण समझती है । फलतः, वह अपने अनुज पालक से अपने स्थान पर राज्यासीन होने का आग्रह करता है ( सर्ग १) | पालक सुयोग्य शासक नहीं था । वह किसी प्रेरणा से, जिसे वह दैवी संकेत समझता है, गोपाल के पुत्र, अवन्तिवर्द्धन के हित में राज्यसिंहासन का परित्याग कर देता है (सर्ग २) । गोपाल का पुत्र एक मातंगपुत्री, सुरसमंजरी के प्रेम में आसक्त हो जाता है। वह (सुरसमंजरी) अपने पिता के समान वस्तुतः विद्याधर-वंश की ही है, जिससे वह विवाह कर लेता है । परन्तु, सुरसमंजरी की कामना १. द्र. 'संस्कृत-साहित्य का इतिहास' (वही), अनूदित संस्करण, सन् १९६० ई., पृ. ३२३—३२६ २. ‘नैपाल-माहात्म्य' (अ. २७-२९) में शिव-पार्वती-संवाद के रूप में उल्लिखित 'बृहत्कथा' की उद्गम-कथा का, हिन्दी में प्रस्तुत, सारभाग 'कथासरित्सागर ( परिषद् - संस्करण) के प्रथम खण्ड की, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल- लिखित, भूमिका (पृ. २०-२१) में द्रष्टव्य है।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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