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________________ . वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व ५३७ या भाव समझ पाने में प्रवाहावरोध की स्थिति नहीं आती। पढ़नेवाले पाठक 'वसुदेवहिण्डी' के कथातत्त्व में इस प्रकार रम जाते हैं कि उनकी देश-काल की आत्मगत और वस्तुगत सीमाएँ मिट जाती हैं। उनके अपने सुख-दुःख के भावों का कथापात्रों के सुख-दुःख के भावों के साथ साधारणीकरण हो जाता है। साथ ही, उन्हें अपनी उपचित अनुभूति को उदय करने का आवश्यक उद्दीपन भी प्राप्त होता है । कालिदास की भाँति संघदासगणी की सौन्दर्यमूलक मान्यता पाश्चात्य वस्तुनिष्ठ सौन्दर्यशास्त्रियों के मत से साम्य रखती है। वस्तुनिष्ठ सौन्दर्यवादी पाश्चात्य मनीषियों का कथन है सौन्दर्य वस्तु में होता है, द्रष्टा के मन में नहीं । अतः जो वस्तु सुन्दर है, वह सर्वदा और सर्वत्र सुन्दर है। कालिदास ने भी शकुन्तला के सन्दर्भ में इस मत को स्वीकार किया है । आश्रमवासिनी शकुन्तला के सम्बन्ध में कालिदास ने कहा है कि जिस प्रकार सेंवार से लिपटे रहने पर भी कमल रमणीय प्रतीत होता है, चन्द्रमा का मलिन कलंक भी उसकी शोभा को बढ़ाता है, उसी प्रकार यह तन्वी (कृशगात्री) शकुन्तला वल्कल पहने हुई रहने पर भी अधिक मनोज्ञ लगती है, इसलिए कि मधुर आकृतिवालों के लिए अलंकरण की आवश्यकता ही क्या है ? १ संघदासगणी ने भी विद्याधरनगर अशोकपुर के विद्याधरराज की पुत्री मेघमाला को, जो केवल एक रक्तांशुक-वस्त्र तथा कमकीमती गहना पहने हुई थी एवं जिसका शरीर अशोकमंजरियों से सज्जित था, 'अच्छेरय-पेच्छणिज्जरूवा' कहा है। क्योंकि, उसकी मधुर आकृति के लिए विशेष अलंकरण की आवश्यकता ही क्या थी । उस विद्याधरी की आकृति नैसर्गिक रूप से सुन्दर थी वह नवयुवती थी, स्तनभार से उसकी गात्रयष्टि लची हुई थी, अपने पुष्ट जघनभार को वह साया ढोती-सी लगती थी, इसलिए वह अपने पैरों को बहुत धीरे-धीरे उठा पाती थी। उसके होंठ अत्यन्त लाल और उसकी स्वच्छ दन्तपंक्ति बड़ी मनोहर थी। इस प्रकार उस प्रसन्नदर्शना के प्रेक्षणीय रूप को देखने की इच्छा बार-बार होती थी, उसे देखकर दर्शकों की रूपतृषा मिटती नहीं थी (धम्मिल्लचरिय: पृ.७३) । सौन्दर्य-विवेचन में, विशेषकर नख-शिख के सौन्दर्योद्भावन में कथाकार ने उदात्तता (सब्लाइमेशन) की भरपूर विनियुक्ति की है। उक्त विद्याधरी के सौन्दर्यांकन में भी उदात्तता से काम लिया गया है। प्रसिद्ध सौन्दर्यशास्त्री डॉ. कुमार विमल के शब्दों में उदात्त वह सौन्दर्य है, जो आश्रय या द्रष्टा को पहले पराभूत, बाद में आकृष्ट करता है।' संघदासगणी ने 'अच्छेरयपेच्छणिज्जरूवा विशेषण के प्रयोग द्वारा इसी उदात्त सौन्दर्य का निरूपण किया है। यहाँ कथाकार द्वारा अंकित कतिपय उदात्त सौन्दर्य के चित्र उद्धृत किये जा रहे हैं, जो स्थालीपुलाकन्याय से आस्वाद्य हैं। प्रणय के सन्धि विग्रह के क्रम में क्रुद्ध रति-रसायनकल्प विमलसेना का मनुहार करते हुए धम्मिल्ल ने भ्रमवश अपनी पूर्व प्रेयसी वसन्ततिलका का नाम ले लिया, फलत: विमलसेना ने १. सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मीं तनोति । इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ॥ - अभिज्ञानशाकुन्तल : १.१९ . २. 'सौन्दर्यशास्त्र के तत्त्व' (वही), प्र. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली: पृ. ९८
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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