SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 524
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०४ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा प्राकृत को जैन महाराष्ट्री नाम से सम्बोधित किया है। इसी आधार पर भाषा-विचारकों ने 'वसुदेवहिण्डी' को आगमेतर ग्रन्थ मानकर उसकी भाषा को प्राचीन जैन महाराष्ट्री की आख्या दी है। इसके अतिरिक्त, महाकाव्यों या महत्कथाकृतियों की भाषा भी सामान्यतः महाराष्ट्री-प्राकृत है। इसलिए भी, 'वसुदेवहिण्डी' जैसी कथाकृति की भाषा को भी महाराष्ट्री मान लिया गया है। 'गउडवहो' (वाक्पतिराज), 'गाहासत्तसई' (हाल सातवाहन) तथा 'रावणवहो' ('सेतुबन्ध': प्रवरसेन) ये तीनों काव्य महाराष्ट्री प्राकृत के प्रतिनिधि ग्रन्थ माने गये हैं। किन्तु 'वसुदेवहिण्डी' को, उसकी भाषा और साहित्य की दृष्टि से, इन तीनों से भिन्न आगमिक कोटि से ग्रन्थों में पंक्तिबद्ध करना युक्तियुक्त होगा। और, इस प्रकार की कोटि का निर्धारण होने पर 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा आर्षतुल्य ही नहीं, अपितु आर्षोत्थ प्राकृत के समकक्ष प्रतीत होगी। ___ डॉ. पिशल के ही विचार के आधार पर, वसुदेवहिण्डी' की भाषा को महाराष्ट्री-प्राकृत मानने में एक विचिकित्सा उठ खड़ी होती है। विद्वानों का अभिमत है कि महाराष्ट्री को काव्योचित या गीतोचित कर्णमधुर भाषा बनाने के लिए, इससे व्यंजनों का ततोऽधिक बहिष्कार किया गया। इससे श्रोताओं को कोमलकान्त पदावली तो मिली, लेकिन इसका एक फल यह हुआ कि इसके शब्दों में अर्थगत भाषिक अनिश्चितता आ गई। एक शब्द कई संस्कृत-शब्दों का अर्थ देनेवाला बन गया। जैसे : कइ = कति, कपि, कवि, कृति ; काअ = काक, काच, काय ; गआ = गता, गदा, गजाः, मअ = मत, मद, मय, मृग, मृत; वअ = वचस्, वयस्, व्रत; सुअ = शुक, सुत, श्रुत आदि-आदि। इसी अर्थगत अनिश्चयता को देखकर, बीम्स महोदय ने महाराष्ट्री को पुंस्त्वहीन (इमेस्क्युलेटेड स्टफ) भाषा की संज्ञा दी है। किन्तु, संघदासगणी द्वारा रचित 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में व्यंजनों का बहिष्कार बहुत ही कम किया गया है; इसलिए प्रसिद्ध शब्दशास्त्री क्रमदीश्वर के लक्षण में लक्ष्य की संगति करते हुए यह कहा जाय, तो अत्युक्ति न होगी कि 'वसुदेवहिण्डी' की पौरुषोत्तेजक भाषा महाराष्ट्री-मिश्रित अर्द्धमागधी' है, जो आर्ष प्राकृत से सादृश्य रखती है। चूँकि, आर्ष प्राकृत में अर्द्धमागधी और शौरसेनी दोनों की गणना की जाती है, इसलिए 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में शौरसेनी का भी कुछ प्रभाव सहज ही सम्मिलित है। निष्कर्ष यह कि 'वसुदेवहिण्डी' की आर्ष प्राकृत में अर्द्धमागधी की बहुलता के साथ ही महाराष्ट्री, शौरसेनी आदि के अतिरिक्ति पैशाची, अपभ्रंश आदि अन्य प्राकृत-भाषाओं की भी प्रकृति परिलक्षित होती है। ___ 'वसुदेवहिण्डी' में उपलब्ध प्राचीन आर्ष प्राकृत या अर्द्धमागधी की रूप-रचना के उदाहरण स्थालीपुलाकन्याय से यहाँ उपन्यस्त हैं। यथोद्धृत शब्दों या वाक्यों में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रियापद आदि सभी व्याकरण के अंग यथायथ द्रष्टव्य हैं। - १. अर्धमागधी में, दो स्वरों के मध्यवर्ती असंयुक्त 'क' के स्थान में प्रायः 'ग' और अनेक स्थलों में 'त' और 'य' तथा कहीं-कहीं विना य-श्रुति के 'अ' होते हैं। कहीं-कहीं 'क' का 'ख' भी होता है। वसुदेवहिण्डी में भी इस प्रकार के ध्वनि-परिवर्तन प्राप्य हैं। जैसे : १. प्राकृत-भाषाओं का व्याकरण' (वही) : पृ. ३६ (विषय-प्रवेश) २.उपरिवत् : पृ१८ ३. संक्षिप्तसार : पृ.३८ । ४. पृष्ठ-संख्या सर्वत्र भावनगर-संस्करण के अनुसार है। ले.
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy