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________________ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा में इस प्रकार, स्थाली - पुलाकन्याय से 'वसुदेवहिण्डी' के गद्य-सरोवर से संकलित छन्दोबद्ध वाक्यांशों के कतिपय उद्धरणों से यह सुतरां स्पष्ट है कि कथाकार ने पूर्व प्रचलित पद्यबद्ध 'वसुदेवचरित' का ही गद्यान्तरण किया है। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि गद्यान्तरण करने के क्रम कथाकार ने अनेक विभिन्न स्रोतों से प्राप्त तत्कालीन ऐतिह्यमूलक कथोपकथाओं को भी स्वनिर्मित प्रांजल गद्य में सुविन्यस्त किया है। इसलिए, इस महत्कथाकृति में जहाँ पद्यगन्धी गद्य का गुम्फन हुआ है, वहीं विशुद्ध परिष्कृत गद्य का आस्वाद भी सुलभ हुआ है। ४९८ 1 'वसुदेवहिण्डी' का यथाप्राप्त भावनगर - संस्करण, इस लुप्तप्राय ग्रन्थ के उद्धार के बाद निर्मित रूप है । इसलिए, इसके कतिपय लम्भ अप्राप्य हैं और कतिपय पाठ भी खण्डित हैं । और, यही कारण है कि, अट्ठारहवें प्रियंगुसुन्दरीलम्भ और इक्कीसवें केतुमतीलम्भ के बीच के उन्नीसवें और बीसवें लम्भों के लुप्त हो जाने से अर्थ की सन्दर्भगत आनुक्रमिकता को क्रमबद्ध करने में भी कठिनाई उपस्थित हो गई है। 'वसुदेवहिण्डी' में प्रयुक्त अनेक ऐसे शब्द हैं, जो कोशलभ्य नहीं हैं अथवा कालान्तर में अपभ्रष्ट हो जाने से उनके मूलस्वरूप की कल्पना भी सम्भव नहीं रह गई है। इससे वैसे शब्दों के अर्थ अनुमान के आधार पर ही किये जा सकते हैं और ऐसी स्थिति यह ग्रन्थ, भाषा की दृष्टि से, सहज ही दुर्गम हो गया है । फलतः इस प्रागैतिहासिक ग्रन्थ का वर्तमान काल में अध्ययन बहुत ही श्रमसाध्य है। भाषा की संरचना - शैली और साहित्यिक सौन्दर्य की दृष्टि से अतिशय समृद्ध इस कथाग्रन्थ के भाषाशास्त्रीय परीक्षण का कार्य अपना ततोऽधिक विशिष्ट महत्त्व रखता है। कहना न होगा कि जिस ग्रन्थ का भाषिक तत्त्व जितनी ही अधिक प्राणता संवलित होता है, उसमें उतनी ही अधिक अमरता या शाश्वती प्रतिष्ठा के बीज निहित रहते हैं। 'वसुदेवहिण्डी' की अमरता का मूल कारण इसका भाषातत्त्व ही है। इसलिए, यहाँ इस ग्रन्थ की भाषा पर एक विहंगम दृष्टि डालना अपेक्षित होगा । (क) भाषिक तत्त्व 'वसुदेवहिण्डी' प्राकृत भाषा में निबद्ध महान् कथाग्रन्थ है। प्रो. भोगीलाल जयचन्दभाई साण्डेसरा ने 'वसुदेवहिण्डी' के, अपने गुजराती भाषा में अन्तरित संस्करण की भूमिका (पृ.१६) में, प्रसिद्ध जर्मन-पण्डित डॉ. ऑल्सडोर्फ के मत के परिप्रेक्ष्य में, इस कथाकृति की भाषा को, चूर्णिग्रन्थ आदि की भाषा के साम्य के आधार पर, आर्ष जैन महाराष्ट्री प्राकृत कहा है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' नामक कृति (पृ. ४६२) में प्रो. साण्डेसरा के ही मत की आवृत्ति करते हुए, 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा को चूर्णिग्रन्थों की प्राकृत भाषा के समान महाराष्ट्री प्राकृत बताया है। डॉ. हीरालाल जैन ने 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' नामक अपनी कृति (पृ. १४३) में 'वसुदेवहिण्डी' का परिचय प्रस्तुत करते समय इस कथाकृति की प्राकृत भाषा को कोई विशिष्ट आख्या तो नहीं दी है, किन्तु अपने उक्त ग्रन्थ (पृ. १३०) मैं ही उन्होंने, लगभग ई. की दूसरी शती को महाराष्ट्री का विकास-काल माना है तथा 'वसुदेवहिण्डी' को छठीं शती से पूर्व की रचना कहा है। इससे उनका यह दृष्टिकोण स्पष्ट होता है कि महाराष्ट्र के विकास-काल के आसपास लिखी गई 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। 'प्राकृत-साहित्य का इतिहास' के लेखक डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने भी वसुदेवहिण्डी की भाषा में जैन महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीनतम स्वरूप परिलक्षित किया है। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी'
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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