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अध्ययन: ५
'वसुदेवहिण्डी' : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व 'वसुदेवहिण्डी' में भाषिक तत्त्वों की दृष्टि से अध्ययन के अनेक आयाम सुरक्षित हैं । इसलिए, इस महत्कथाकृति का भाषाशास्त्रीय अनुशीलन एक स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध का विषय है। यहाँ केवल-मात्र तद्विषयक दिग्दर्शन ही प्रस्तुत है। लगभग साढ़े दस हजार श्लोकप्रमाण प्रस्तुत प्राकृत-कथाग्रन्थ, गद्य में निबद्ध होने के कारण भाषा-विषयक गवेषणा की दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखता है। प्रवाहमयी भाषा और मिताक्षरा शैली में लिखी गई 'वसुदेवहिण्डी' में कथा की योजना और उसके विस्तार में सघन साहित्यिक श्लिष्टता के जिस रूप के दर्शन होते हैं, वे अन्य प्राचीन प्राकृत जैनकथा-साहित्य में प्रायोदुर्लभ हैं । कहना न होगा कि इस कथाकृति में प्राकृत-भाषा और उसकी मोहक साहित्यिक शैली का मणिप्रवाल-संयोग हुआ है। भाषा की तरुणता, सरसता और लाक्षणिक चेतना के द्वारा कथाकार संघदासगणी ने अद्भुत चित्रसृष्टि की है। वह निश्चय ही, सरल रसपेशल नैसर्गिक भाषा के सफल प्रयोक्ता हैं और अपनी इस भाषा के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन जनमानस को ही मुखर किया है। 'वसुदेवहिण्डी' के कथापात्रों की बातचीत की भाषा कहीं भी कृत्रिम नहीं मालूम होती। प्रसंग की अनुकूलता को ध्यान में रखकर कथाकार ने अपनी भाषा में यत्र-तत्र अलंकार-भूयिष्ठ समासबहुला गौडी रचना-रीति के प्रयोग द्वारा मानों अपनी कथा-नायिका के लहराते केशपाश को रमणीय शब्दों के पुष्पगुच्छ से सजाकर उसे सातिशय ललित और कलावरेण्य बना दिया है। आगे यथाप्रस्तुत 'साहित्यिक सौन्दर्य के तत्त्व' शीर्षक प्रकरण में प्रत्यासत्त्या इस कथाकृति के भाषिक सौन्दर्य पर भी दृष्टि-निक्षेप किया जायगा।
- 'वसुदेवहिण्डी' यद्यपि गद्यग्रन्थ है, तथापि बीच-बीच में यथावसर विविध-वृत्तपरक गाथाओं का भी उल्लेख हुआ है। संख्या की दृष्टि से कुल १३८ गाथाएँ है। इन गाथाओं में कुछेक ही सुभाषित हैं, शेष सभी गाथाएँ कथा-प्रसंग के नैरन्तर्य से अनुबद्ध हैं। गद्य में प्रयुक्त बहुत सारे वाक्य पद्यगन्धी हैं, जो विविध वार्णिक एवं मात्रिक छन्दों के चरण के समान प्रतीत होते हैं। और वे पढ़ने के क्रम में ऐसा भान कराते हैं, जैसे मूलत: यह ग्रन्थ पद्यबद्ध रहा हो, और कालान्तर में गद्यान्तरित हो गया हो। जो भी हो, किन्तु सम्प्रति, इस ग्रन्थ की यथाप्राप्त प्रति में गद्य का जो प्रांजल रूप दृष्टिगत होता है, उससे कथाकार के प्राकृत-गद्य के अतिशय समर्थ लेखक होने का संकेत मिलता है। प्रो. भोगीलाल जयचन्दभाई साण्डेसरा ने लिखा है कि 'वसुदेवहिण्डी की रचना के पूर्व लोक में या अनुयोगधर आचार्यों की मौखिक कथा-परम्परा में कोई पद्यात्मक वसुदेवचरित' या उसका कोई अंश प्रचलित रहा होगा। 'इसलिए', यह अनुमान असहज नहीं कि बाद में संघदासगणी ने उसी पूर्वप्रथित पद्यमय 'वसुदेवचरित' का गद्यान्तरण किया हो। प्रस्तुत कथाग्रन्थ की प्रासादिक भाषा में परिनिबद्ध गद्य-योजना में पद्यगन्धी (छन्दोबद्ध) वाक्यांशों के कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं: मूलपृष्ठ पंक्ति वाक्यांश ६ : १७ : एवं भणंता कलुणं परुण्णा। (उपजाति, प्रथम चरण) ८ : १० : हत्थी हत्येण केसग्गे परामुसति। तम्मिय. . . (अनुष्टुप् के दो चरण)