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________________ ४८४ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा को स्वीकार न करनेवालों के ही अपर पर्याय हैं। भूतवादियों की मान्यता के अनुसार, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चारों भूतों (भूतचतुष्टय से ही सभी जड़-चेतन पदार्थ उत्पन्न होते हैं) के अतिरिक्त चेतन या अचेतन नामक तत्त्व की सत्ता इस संसार में नहीं है। भूतवादियों की दृष्टि में नास्तिकेतर दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत आत्मतत्त्व या चेतन तत्त्व भौतिक ही हैं। अवस्था - विशेष में भूतों के माध्यम से ही चैतन्य की उत्पत्ति होती है। जैसे : पान, सुपारी, कत्था, चूना आदि के संयोग से मुख में स्वयं लाली उत्पन्न हो जाती है। ' या फिर जिस प्रकार किण्व (मदिरा के निर्माण में खमीर उठानेवाला बीज या अन्य जड़ी-बूटी) आदि द्रव्यों में मादक शक्ति नहीं होती, अपितु उनके मिश्रण से मदिरा में मादकशक्ति स्वतः उद्भूत हो जाती है ( 'किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत् तेभ्यश्च चैतन्यम्) । इसी प्रकार, भूतवादियों या भूतचैतन्यवादियों की दृष्टि में आत्मा भौतिक शरीर से भिन्न तत्त्व सिद्ध न होकर शरीर-रूप ही सिद्ध होता है। इसीलिए, चार्वाक ने चैतन्य - विशिष्ट शरीर को ही आत्मा कहा है ('चैतन्यविशिष्टः काय: पुरुष: ' )। 'सूत्रकृतांग' (२.१) में वर्णित 'तज्जीवतच्छरीरवाद' तथा 'पंचभूतवाद' भी भूतवादी मान्यता से सम्बद्ध है । 'तज्जीवतच्छरीरवाद' का मन्तव्य है कि शरीर और जीव या आत्मा एक हैं, दोनों में कोई भेद नहीं है। इसे ही अनात्मवाद या नास्तिकवाद कह सकते हैं। पंचभूतवाद की मान्यता के अनुसार, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच भूत ही यथार्थ हैं और इन्हीं से जीव या आत्मा की उत्पत्ति होती है । 'सूत्रकृतांग' के इन दोनों वादों में सूक्ष्म अन्तर यह प्रतीत होता है कि पहले, तज्जीवतच्छरीरवादियों के मत से शरीर और जीव एक ही है, अर्थात् दोनों में अभिन्नत्व-सम्बन्ध है और दूसरे, पंचभूतवादियों के मत से पंचभूत के मिश्रण से निर्मित शरीर में स्वयं उद्भूत होता है और शरीर के नष्ट होने पर वह (जीव) भी नष्ट हो जाता है 1 भूतवादी, चूँकि शरीर से आत्मा की पृथक् सत्ता स्वीकार नहीं करते, इसलिए वे पुनर्जन्म तथा परलोक की सत्ता में विश्वास नहीं रखते। उनकी दृष्टि में जीवन का एकमात्र लक्ष्य ऐहलौकिक या भौतिक सुख की प्राप्ति है । इसी विचार को दृष्टि में रखकर वैयाकरणों या शब्दशास्त्रियों ने भौतिकवादी नास्तिक-दर्शन के प्रवर्त्तक 'चार्वाक" के नाम की व्याख्या इस प्रकार की है : 'चार्वाक' शब्द की व्युत्पत्ति 'चव्' अदने धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ चबाना या भोजन करना होता है। चूँकि, इस सम्प्रदाय में खान-पान और भोग-विलास पर अधिक आग्रह प्रदर्शित किया गया है, इसलिए इसका ‘चार्वाकदर्शन' नाम उपयुक्त प्रतीत होता है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार, जो पुण्य-पाप आदि रूप परोक्ष फल का चर्वण (नाश) करते हैं, अर्थात् तत्त्वतः इसे स्वीकार नहीं करते, वे चार्वाक हैं । ‘शब्दकल्पद्रुम' में राधाकान्तदेव ने चारु + वाक् से चार्वाक की निष्पत्ति मानी है । चार्वाकों के वचन (उपदेश) लोगों को स्वभावतः चारु, मधुर या आपातमनोरम प्रतीत होते हैं, इसलिए उन्हें चार्वाक कहा जाता है (चारु, आपातमनोरमः लोकचित्ताकर्षकः वाकः वाक्यमस्य । काशिकावृत्ति के अनुसार, 'चार्वी ' शब्द से भी 'चार्वाक' के निष्पन्न होने का संकेत मिलता है । १. जड भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते । ताम्बूलपूगचूर्णानां योगाद्राग इवोत्थितम् ॥ - सर्वसिद्धान्तसंग्रह : २.७ २. चर्वन्ति भक्षयन्ति तत्त्वतो न मन्यन्ते पुण्यपापादिकं परोक्षजातमिति चार्वाकः । - उणादिसूत्र ३. पिब खाद च जातशोभने ... । षड्दर्शनसंग्रह : पृ. ३.
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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