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________________ ४६२ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा रहती थीं। प्राचीन अंग-जनपद के चम्पामण्डल के अन्तर्गत वर्तमान भागलपुर जिले के बौंसी नामक स्थान में अवस्थित मन्दराचल से उक्त मेरु-प्रतिरूप मन्दर या अंगमन्दर की पहचान की जाती है। प्राचीन समय में हस्तिनापुर के राजा पद्मरथ का ज्येष्ठ पुत्र विष्णुकुमार अंगमन्दर पर्वत पर ही तप करता था। वह लब्धि-सम्पन्न आकाशचारी अनगार था। विष्णुकुमार ने ही विराट रूप धारण करके दुरात्मा नमुचि पुरोहित को पदावनत किया था। नमुचि पुरोहित राजा पद्मरथ को फुसलाकर, उससे राज्य प्राप्त कर लिया था और स्वयं राजा बन बैठा था। वह साधुओं पर अत्याचार करने के कारण कुख्यात था। जैनागम में वर्णित मन्दराचल का व्यापक विवरण स्वतन्त्र प्रबन्ध का विषय है। आगम में प्रसिद्ध है कि श्रेष्ठ मन्दराचल की चूलिका के दक्षिण भाग में अतिपाण्डुकम्बलशिला प्रतिष्ठित थी, जिसपर नवजात शिशु ऋषभस्वामी को इन्द्र ने ले जाकर रखा था। वेदश्यामपुर से तीर्थंकरों की वन्दना के निमित्त सम्मेदशिखर जाने के मार्ग में राजा कपिल की भिक्षुणी बहन मन्दर पर्वत पर ही विश्राम के लिए ठहरी थी। कथाकार ने संकेत किया है कि मन्दरगिरि-स्थित नन्दनवन नामक सिद्धायतन में विद्याधरनरेश भी तीर्थंकर की वन्दना के लिए आते थे। एक बार परिवार सहित विद्याधरनरेश गरुडवेग जिन-प्रतिमा की वन्दना के निमित्त वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी से चलकर मन्दरशिखर पर गया था (केतुमतीलम्भ : पृ.३३४) । 'स्थानांग' (४.३१८) में मन्दरपर्वत की चूलिका (ऊपरी भाग) की चौड़ाई चार योजन की मानी गई है । 'स्थानांग' (४.३०९; ५.१५०) में ही वर्णित वक्षस्कार और वर्षधर पर्वतों की स्थिति मन्दरपर्वत के चारों ओर थी। मन्दरपर्वत के ही चारों ओर शीतोदा महानदी बहती थी। सम्प्रति, मन्दारपर्वत चन्दन (चानन) नदी के पूर्व में तथा भागलपुर के दक्षिण-पूर्व, लगभग अड़तालीस किमी. की दूरी पर अवस्थित है। इस पर्वत पर वास्तुविद्या तथा मूर्तिकला-विषयक अनेक अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनसे पर्वत के वास्तविक महत्त्व पर प्रकाश पड़ता है। यह पर्वत वर्तमान स्थिति में केवल सात सौ फीट ऊँचा है तथा इसके मध्य में एक कटिका है, जिसे वासुकिनाग का कुण्डल कहा जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र-मन्थन के लिए इसी मन्दर पर्वत को मथानी बनाया गया था और वासुकिनाग को मथानी की रस्सी। उक्त कटिका या कुण्डल मन्थन के समय रस्सी के घर्षण से ही बना। चम्पामण्डल के वासुपूज्य-क्षेत्र का तीर्थंकर-पीठ होने के कारण ही जैन साहित्य में इसकी चर्चा बड़े आदर और आग्रह के साथ विस्तारपूर्वक की गई इस पर्वत की प्राचीनता इससे भी स्पष्ट है कि इसका उल्लेख 'कूर्म', 'वामन' और 'वाराहपुराण' में भी उपलब्ध होता है। 'महाभारत' तथा जैनागमों में वर्णित प्रसंगों से ऐसा प्रतीत होता है कि यह हिमालय-श्रेणी का कोई पर्वत था। मेगास्थनीज ने इस पर्वत को 'माउण्ट मेलियस' की संज्ञा प्रदान की है। श्रीसिलवों लेवी मेरु की पहचान पामीर, और मन्दर की पहचान उपरली इरावदी पर पड़ने वाली पर्वत-शृंखला से करते हैं। पर, 'महाभारत' से तो मन्दर की पहचान कदाचित् 'क्वेन-लुन' पर्वतश्रेणी से की जा सकती है, जो मध्य एशिया के रास्ते पर पड़ती है। जो भी हो, इतना १. द्र. परिषद्-पत्रिका' : वर्ष १८: अंक ३ (अक्टूबर, १९७८ई), : पृ. ३१ २.'सार्थवाह' (वही) : पृ.१३८
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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