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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ४५३ उस युग में दूध और घी का व्यापार भी बड़े पैमाने पर होता था । वसुदेव दुग्धवाहकों द्वारा बनाई गई पगडण्डी का अनुसरण करते हुए ही गिरिकूट गाँव में पहुँचे थे । ('जा दुद्धवाहिएहिं पदपज्जा कया तीऽणुसज्जमाणो वच्चसु त्ति; सोमश्रीलम्भ: पृ. १८२ ) । अंग-जनपद का एक गोपबालक जब युवा हुआ, तब वह गाड़ियों में घी के बरतन भरकर चम्पापुरी ले जाने और वहाँ घी का व्यापार करने लगा ('सो य से दारओ वयवडिओ जोव्वणत्यो जातो, घयस्स सगडाणि भरेऊण चंपं गतो । विक्कीयं घयं कथोत्पत्ति : पृ. १३) । संघदासगणी ने तत्कालीन दूकानों की सजावट की विधि, विक्रेताओं और ग्राहकों की चहल-पहल एवं ग्राहकों से दूकानदारों के व्यवहार पर भी अच्छा प्रकाश डाला है । वसुदेव से मलयदेश के एक नगर के बाजार में भ्रमण का अनुभव सुनाते हुए अंशुमान् ने बताया था कि जब वह सुशोभित नगर के बाजार की गलियों से गुजरा, तब उसे वहाँ विभिन्न दिशाओं, नगरों और पर्वतों से प्राप्त वस्तुओं से सजी दुकानें दिखाई पड़ीं। बाजार की गलियाँ तो विक्रेताओं और खरीदारों, साथ ही कुतूहली व्यक्तियों से खचाखच भरी हुई थीं। वह जब एक सार्थवाह की दुकान पर पहुँचा, तब उसने उसे प्रणाम किया और बैठने के लिए आसन दिया और यह भी कहा कि आपको जिस चीज की जरूरत हो, निस्संकोच कहिए (पुण्ड्रालम्भ : पृ. २१० ) । इसी प्रकार, वसुदेव जब एक सार्थवाह की दुकान पर पहुँचे थे, तब उसने उनका स्वागत करते हुए बैठने के लिए आसन दिया था (रक्तवतीलम्भ: पृ. २१८) । इस कथाप्रसंग से स्पष्ट है कि तत्कालीन अर्थ-व्यवस्था में दुकानों और बाजारों की समृद्धि का उल्लेखनीय महत्त्व था। दुकानों में दूर-दूर के देशों में स्थित पर्वतों और नगरों से माल लाकर क्रय-विक्रय के निमित्त एकत्र किये जाते थे । संघदासगणी ने माल के लिए भंड (< भाण्ड) शब्द का सार्वत्रिक प्रयोग किया है। ('बहुविहं भंडं घेत्तूण गाम- नगराईणि ववहरंता हिंडंति; केतुमतीलम्भ: पृ. ३३३) । उपकरण के अर्थ में भी 'भंड' शब्द प्रयुक्त हुआ है । वसुदेव ने श्रावस्ती की अशोकवनिका में पहले से ही सजाकर रखे गये मृदंग, मुकुन्द (मृदंगविशेष), बाँसुरी, कांस्यतालिका (मँजीरा) आदि आतोद्य के उपकरण (वाद्ययन्त्र) देखे थे ('तत्थ य अहं पुव्वसारवियाई आउज्जभंडाई पासामि मुरव - मुकुंद-वंसकंसालियानिनायओ; प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. २८२) । कथाकार ने व्यापारियों द्वारा माल बेचने के एक अनोखे तरीके का उल्लेख किया है । कथा है कि बिलपंक्तिका अटवी में बाघ से मारे गये जिनदास ने उसी जंगल में वानर के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण किया । वहाँ उसे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। एक दिन कुछ सार्थ उस जंगल में आये। उनके बीच मृदंग आदि वाद्यों को देखकर वानर ने उन्हें बजाया और नाच भी दिखाया । परितुष्ट वणिक् उस वानर को अपनी आजीविका का माध्यम बनाने के निमित्त पकड़कर मथुरा नगरी ले गये । वहाँ वे उससे बाजा बजवाते और माल का विक्रय करते । बाद में, उसे उन्होंने एक हजार आठ मुद्राएँ लेकर राजा के हाथों बेच दिया (तत्रैव पृ. २८५) । माल बेचने का यह ढंग आधुनिक काल में भी विभिन्न नगरों की सड़कों पर यत्र-तत्र देखने को मिलता है । उस युग में आदान-प्रदान या व्यय - विनिमय के निमित्त सिक्के के रूप में स्वर्णमुद्राओं का प्रचलन था । यद्यपि, मुद्रा शब्द का स्पष्ट उल्लेख कथाकार संघदासगणी ने नहीं किया है । उन्होंने कहीं हिरण्य, सुवर्ण, द्रव्य, धन आदि अर्जन करने की चर्चा की है, तो कहीं केवल संख्या का संकेत .
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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