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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन तराजू झुक गया, लेकिन रेवती के साथ न्याय करते समय नहीं झुका । ("रेवइणा रण्णे लेहवियंसिक्ख मे । कारणिएहिं रण्णो समीवे तुला परिसाविया - जइ धारणो धरेई ततो तुला पडेउ । पडिया। पुणो- जइ रेवई न धरे तो तुला मा पडउ । न पडइ"; प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २९५) । राजा ने रेवती को एक लाख रुपये दिलवा दिये और धारण को मिथ्यावादी घोषित कर उसकी जीभ कटवा ली। 'वसुदेवहिण्डी' के विधि-विषयक कथाप्रसंगों से यह संकेतित होता है कि तत्कालीन विधि का सिद्धान्त नीतिशास्त्रानुमोदित था । विधि या कानून के आधार और नीतिशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त एक दूसरे से सम्यक्तया अनुबद्ध थे । क्योंकि, विधिशास्त्री ऐसा मानते हैं कि केवल कानून पर चलनेवाला व्यक्ति ('होमोजूरिडिकस') बहुत शोभनीय प्राणी नहीं होता, जबतक उसका व्यवहार नीतिशास्त्रानुमोदित न हो। इसीलिए, संघदासगणी ने ऐसे अनेक राजाओं के चित्रण किये हैं, जो केवल कानून पर चलनेवाले थे, किन्तु उनके मन्त्री उनके कानूनों को सतत नीतिसम्मत बनाकर क्रियान्वित करते थे । ४३७ भारतीय विधि-सिद्धान्त में प्रारम्भ से ही राजशक्ति धर्मानुशासित रही है और आततायी को दण्ड देना राजा का प्रधान धर्म माना गया है। 'मनुस्मृति' में उल्लेख है कि दण्ड सब प्राणियों पर राज्य करता है और दण्ड ही सब प्राणियों की रक्षा करता है, सबके सो जाने पर केवल दण्ड ही जागता रहता है और पण्डित जन दण्ड को ही धर्म कहते हैं। एक स्मृतिकार कहता है कि न तो राज्य है, न राजा ; न तो दण्ड है, न दाण्डिक ( दण्ड देनेवाला)। धर्म ही सब प्रजाओं की रक्षा करता है । इसलिए, प्राचीन हिन्दू-विधिशास्त्र का सर्वप्रधान लक्ष्य था — धर्म की संस्थापना । मनुष्य श्रेय के लिए धर्म के नियमों का पालन आवश्यक था और धर्म का उल्लंघन करनेवाला व्यक्ति राजा द्वारा दण्डनीय होता था । 'मनुस्मृति' का वचन है कि अदण्डनीय को दण्ड देने से और दण्डनीय को दण्ड न देने से राजा का बड़ा अपयश होता है और वह नरक में जाता है। जो राजा सामाजिक व्यवस्था भंग करनेवाले को दण्ड नहीं दे सकता, उसे राजस्व ग्रहण का अधिकार नहीं है। याज्ञवल्क्य ऋषि ने कहा है कि रक्षा न करने से प्रजा जो कुछ पाप करती है, उसमें आ पाप का भागी राजा होता है; क्योंकि वह प्रजा की रक्षा के लिए उससे कर लेता है । इसलिए, राजा का धर्म जहाँ लोकरंजन या प्रजारक्षण है, वहीं दण्ड द्वारा अपराध का परिमार्जन भी उसका कर्तव्य है । 1 अपराध और दण्ड पर प्राचीन भारतीय शास्त्रों में बड़ी विशदता से विचार किया गया है प्रख्यात विधिशास्त्री पं. सतीशचन्द्र मिश्र ' ने दण्डनीति पर विस्तार से विवेचन करते हुए कहा है १. दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति । दण्डः सुप्तेषु जागर्त्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥ ( ७.१८) । २. न राज्यं न च राजास्ति न दण्डो न च दाण्डिकः । धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्ष्यन्ते हि परस्परम् ॥ ३. अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् । अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति ४. अरक्ष्यमाणाः कुर्वन्ति यत्किंचित्किल्विषं प्रजाः । तस्मात्तु नृपतेरर्द्धं यस्माद्गृह्णात्यसौ करम् ॥ ॥ (८.१२८) — याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण, श्लोक ३७ ५. विशेष विवरण के लिए द्र. 'विधिविज्ञान का स्वरूप', दण्डनीतिप्रकर्त: पृ. १५८
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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